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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


दोनों बचपन के सखा वहीं गले मिले।

‘यहाँ कब आये? चलो, घर चलो। भले आदमी, क्या वहाँ आम भी मयस्सर न होते थे।’

हरिधन ने मुसकिरा कर कहा– मँगरू, इन आमों में जो स्वाद है, वह और कहीं के आमों में नहीं है। गाँव का क्या रंग-ढंग है?

मँगरू– सब चैनचान है भैया! तुमने तो जैसे, नाता ही तोड़ लिया। इस तरह कोई अपना गाँव-घर छोड़ देता है? जब से तुम्हारे दादा मरे, सारी गिरस्ती चौपट हो गयी। दो छोटे-छोटे लड़के हैं। उनके किये क्या होता है।

हरिधन– अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई? मैं तो अपना ले-दे चुका। मजूरी तो मिलेगी न? तुम्हारी गैया मैं ही चरा दिया करूँगा; मुझे खाने को देना।

मंगरू ने अविश्वास के भाव से कहा– अरे भैया, कैसी बातें करते हो, तुम्हारे लिए जान हाजिर है। क्या ससुराल में अब न रहोगे? कोई चिन्ता नहीं। पहले तो तुम्हारा घर ही है। उसे सँभालो! छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको पालो। तुम नयी अम्माँ से नाहक डरते थे। बड़ी सीधी है बेचारी। बस, अपनी माँ समझो। तुम्हें पा कर तो निहाल हो जायगी। अच्छा, घरवाली को भी तो लाओगे?

हरिधन– उसका अब मुँह न देखूँगा। मेरे लिए वह मर गयी।

मँगरू– तो दूसरी सगाई हो जायगी। अब की ऐसी मेहरिया ला दूँगा कि उसके पैर धो कर पियोगे; लेकिन कहीं पहली भी आ गयी तो?

हरिधन– वह न आयेगी।

हरिधन अपने घर पहुँचा तो दोनों भाई, ‘भैया आये। भैया आये!’ कह कर भीतर दौड़े और माँ को खबर दी।

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