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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


महाराज सुरेन्द्र विक्रमसिंह ने इस वादविवाद को ध्यान से सुना और कहा- ''धर्मवीरो! मैं तुम्हें इस निपटारे पर बधाई देता हूँ। तुमने जाति का नाम रख लिया। पशुपति इस उत्तम कार्य में तुम्हारी सहायता करें।''

सभा विसर्जित हुई। दुर्ग से तोपें छूटने लगीं। नगर-भर में खबर गूँज उठी कि पंजाब की महारानी चंद्रकुँवरि का शुभागमन हुआ है। जेनरल रणवीरसिंह और जेनरल समधीरसिंह बहादुर 5000 सेना के साथ महारानी की अगवानी के लिए चले।

अतिथि-भवन की सजावट होने लगी। बाजार अनेक भाँति की उत्तम-उत्तम सामग्रियों से सज गए।

ऐश्वर्य की प्रतिष्ठा या सम्मान सब कहीं होता है, किंतु किसी ने भिखारिनी का ऐसा सम्मान देखा है? सेनाएँ बैंड बजाती ओर पताके फहराती हुईं एक उमड़ी नदी की भाँति चली जाती थीं। सारे नगर में आनंद-ही-आनद था। दोनों ओर सुंदर वस्त्राभूषणों से सजे दर्शकों का समूह खड़ा था। सेना के कमांडर आगे-आगे घोड़ों पर सवार थे। सबके आगे राना जंगबहादुर, जातीय अभिमान के मद में लीन, अपने सुवर्ण-खचित हौदे में बैठे हुए थे। यह उदारता का एक पवित्र दृश्य था। धर्मशाला के द्वार पर यह जुलूस रुका। राना हाथी से उतरे। महारानी चंद्रकुँवरि कोठरी से बाहर निकल आई। राना ने झुककर वंदना की। रानी उनकी ओर आश्चर्य से देखने लगीं। यह वही उनका मित्र-उनका बूढ़ा सिपाही था।

आँखें भर आईं। मुस्कराईं। खिले हुए फूल पर से ओस की बूँदें टपकीं। रानी बोलीं- ''मेरे बूढ़े ठाकुर, मेरी नाव पार लगानेवाले! किस भाँति तुम्हारा गुण गाऊँ?''

राना ने सिर झुकाकर कहा- ''आपके चरणारविंद से हमारे भाग्य उदय हो गए।''

नेपाल की राजसभा ने पच्चीस हज़ार रुपए से महारानी के लिए एक उत्तम भवन बनवा दिया और उनके लिए दस हज़ार रुपए मासिक नियत कर दिया।

वह भवन आज तक वर्तमान है और नेपाल की शरणागत प्रियता तथा प्रणपालन-तत्परता का स्मारक है। पंजाब की रानी को लोग आज तक याद करते हैं। यह सीढ़ी है जिससे जातियाँ, यश के सुनहले शिखर तक पहुँचती हैं।

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