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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल-भर की सजा पायी थीं दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहाँ आयी थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थे। यहाँ की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। जरा-जरा सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगर की चीजों के लिये लेडीवार्डरों की खुशामदें करना, घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पंसद न था। वही कुत्सा और कनफुसकियाँ जेल के भीतर भी थी। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उसके जाति-प्रेम का वारापार न था। इस रंग में पगी हुई थी; पर अन्य देवियाँ उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं मृदुला को हिरासत में आये आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुला में वह संकीर्णत और ईर्ष्या न थी, न निन्दा करने की आदत, न श्रृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। उसके हृदय में करूणा थी, सेवा का भाव था: देश का अनुराग था। क्षमा ने सोचा था इसके साथ छह महीने आनन्द से कट जांऍगे; लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था। कल मृदुला यहाँ से चली जाएगी। फिर अकेली हो जाएगी। यहाँ ऐसा कौन है, जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दु:ख-दर्द सुनायेगी, देश चर्चा करेगी; यहाँ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं।

मृदुला ने पूछा- तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी है, बहन!

क्षमा ने हसरत के साथ कहा- किसी-न-किसी तरह कट ही जाएँगे बहन! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी। इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझ पर न जाने से क्या जादू कर दिया। जब से तुम आयी हो, मुझे जेल जेल न मालूम होता था। कभी-कभी मिलती रहना।

मृदुला ने देखा, क्षमा की आँखें डबडबायी हुई थीं। ढ़ाढस देती हुई बोली- जरूर मिलूंगी दीदी! मुझसे तो खुद न रहा जाएगा। भान को भी लाऊँगीं। कहूँगी- चल, तेरी मौसी आयी है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की। बेचारा - रोया करता होगा। मुझे देखकर रूठ जायेगा। तुम कहाँ चलीं गयीं? मुझे छोड़कर क्यों चली गयीं? जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलता, तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन! छन-भर निचला नहीं बैठता, सवेरे उठते ही गाता है- ‘झन्ना ऊँता लये अमाला’ ‘छोलाज का मन्दिर देल में है।’ जब एक झंडी कन्धे पर रखकर कहता है- ‘ताली-छलाब पानी हलाम है’ तो देखते ही बनता है। बाप को तो कहता है- तुम गुलाम हो। वह एक अँगरेजी कम्पनी में है, बार-बार इस्तीफा देने का विचार करके रह जाते हैं। लेकिन गुजर-बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा। कैसे छोड़े। वह तो छोड़ बैठे होते। तुमसे सच कहकती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है, लेकिन मैं ही समझती रहती हूँ बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे, कैसे भान को सँभालते होंगे। सास जी के पास तो रहता ही नहीं। वह बेचारी बूढ़ी, उसके साथ कहाँ-कहाँ दौड़ें! चाहती है कि मेरी गोद में दबक कर बैठा रहे। और भान को गोद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंगी, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आये। कल अदालत में बाबू जी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा है। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोड़े रहीं। इस छोकरी ने कुल-मरजाद डुबा दी, खानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही, न जाने क्या-क्या बकती रहीं। मैं उनकी बातों को बुरा नहीं मानती। पुराने जमाने की हैं उन्हें कोई चाहे कि आकर इन लोगों में मिल जाएँ, तो उसका अन्याय है। चल कर मनाना पड़ेगा। बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्मण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रह कर तब बहन! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।

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