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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


बूटी जल उठी। उसे बुढ़िया कह देना उसकी सारी साधना पर पानी फेर देना था। बुढ़ापे में उन साधनों का महत्त्व ही क्या? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलती थी, उस पर इतना कुठाराघात! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दी। उसके आदमी को मरे आज पाँच साल हुए। तब उसकी चढ़ती जवानी थी। तीन बच्चे भगवान् ने उसके गले मढ़ दिए, नहीं अभी वह है कै दिन की। चाहती तो आज वह भी ओठ लाल किए, पाँव में महावर लगाए, अनवट-बिछुए पहने मटकती फिरती। यह सब कुछ उसने इन लड़कों के कारण त्याग दिया और आज मोहन उसे बुढ़िया कहता है! रुपिया उसके सामने खड़ी कर दी जाए, तो चुहिया-सी लगे। फिर भी वह जवान है, और बूटी बुढ़िया है! बोली- हाँ और क्या। मेरे लिए तो अब फटे चीथड़े पहनने के दिन हैं। जब तेरा बाप मरा तो मैं रुपिया से दो ही चार साल बड़ी थी। उस वक्त कोई घर कर लेती तो, तुम लोगों का कहीं पता न लगता। गली-गली भीख माँगते फिरते। लेकिन मैं कह देती हूँ, अगर तू फिर उससे बोला तो या तो तू ही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगी।

मोहन ने डरते-डरते कहा- मैं उसे बात दे चुका हूँ अम्मा!

‘कैसी बात?’

‘सगाई की।’

‘अगर रुपिया मेरे घर में आयी तो झाडू मारकर निकाल दूँगी। यह सब उसकी माँ की माया है। वह कुटनी मेरे लड़के को मुझसे छीने लेती है। राँड़ से इतना भी नहीं देखा जाता। चाहती है कि उसे सौत बनाकर छाती पर बैठा दे।’

मोहन ने व्यथित कंठ में कहा- अम्माँ, ईश्वर के लिए चुप रहो। क्यों अपना पानी आप खो रही हो। मैंने तो समझा था, चार दिन में मैना अपने घर चली जाएगी, तुम अकेली पड़ जाओगी। इसलिए उसे लाने की बात सोच रहा था। अगर तुम्हें बुरा लगता है तो जाने दो।

‘तू आज से यहीं आँगन में सोया कर।’

‘और गायें-भैंसें बाहर पड़ी रहेंगी?’

‘पड़ी रहने दे, कोई डाका नहीं पड़ा जाता।’

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