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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


मन में केवल यही भावना थी– मेरा भैया कितना दुःखी है। मुझे इस भाई के प्रति कभी इतनी ममता न हुई थीं, फिर तो मन की वह दशा हो गयी, जिसे विह्वलता कह सकते हैं। शत्रु-भाव जैसे मन से मिट गया हो, जिन-जिन प्राणियों से मेरा वैर भाव था, जिनसे गाली-गलौज, मार-पीट मुकदमेबाजी सब कुछ हो चुकी थी, वह सभी जैसे मेरे गले में लिपट-लिपट कर हँस रहे थे। फिर विद्या (पत्नी) की मूर्ति मेरे सामने आ खड़ी हुई– वह मूर्ति जिसे दस साल पहले मैंने देखा था – उन आँखों में वही विकल कम्पन था, वहीं संदिग्ध विश्वास, कपोलों पर वही लज्जा-लालिमा; जैसे प्रेम सरोवर से निकला हुआ कोई कमल-पुष्प हो। वही अनुराग, वही आवेश, वही याचना-भरी उत्सुकता, जिसमें मैंने उस न भूलने वाली रात को उसका स्वागत किया था, एक बार फिर मेरे हृदय में जाग उठी। मधुर स्मृतियों का जैसे स्रोत-सा खुल गया। जी ऐसा तड़पा कि इसी समय जाकर विद्या के चरणों पर सिर रगड़कर रोऊँ और रोते-रोते बेसुध हो जाऊँ। मेरी आँखें सजल हो गयी। मेरे मुँह से जो कटु शब्द निकले थे, वह सब जैसे ही हृदय में गड़ने लगे। इसी दशा में, जैसे ममतामयी माता ने आकर मुझे गोद में उठा लिया। बालपन में जिस वात्सल्य का आनन्द उठाने की मुझमें शक्ति न थी  वह आनन्द आज मैंने उठाया।

गाना बन्द हो गया। सब लोग उठ-उठ कर जाने लगे। मैं कल्पना-सागर में ही डूबा रहा।

सहसा जयदेव ने पुकारा– चलते हो, या बैठे ही रहोगे?

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3. ठाकुर का कुआँ

जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी।

गंगी से बोला– यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है !

गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था; बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी; आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरूर कोई जानवर कुएँ में गिर कर मर गया होगा; मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?

ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बताएँगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है; परन्तु वहाँ कौन पानी भरने देगा? कोई और कुआँ गाँव में नहीं।

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