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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


“मगर मैं जवाब नहीं दूँगी, यह समझ लो।”

“मत देना। मैं माँगता तो नहीं।... मगर याद रखना।”

गाड़ी चल पड़ी। अमृत उसकी खिड़की की ओर देखता रहा। गाड़ी के कोई एक फरलाँग निकल जाने पर उसने देखा कि पूर्णिमा ने खिड़की से सिर निकालकर उसकी तरफ देखा और फिर बच्चे को गोद में लेकर उसे जरा-सा दिखला दिया।

अमृत का हृदय उस समय उडकर पूर्णिमा के पास पहुँच जाना चाहता था। वह इतना प्रसन्न है कि मानो उसका उद्देश्य सिद्ध हो गया हो।

उसी वर्ष पूर्णिमा की माँ का देहान्त हो गया। पूर्णिमा उस समय सफर में थी। वह अपनी माँ को अन्तिम समय न देख सकी। जहाँ तक हो सकता था, अमृत ने पहले तो उसकी पूरी चिकित्सा की और उसके मर जाने पर उसका क्रिया कर्म भी कर दिया। ब्राह्मणों को भी और बिरादरीवालों को भी भोजन कराया, मानो स्वयं उसी की माँ मर गयी हो। स्वयं उसके पिता का देहान्त हो ही चुका था, इसलिए वह आप ही अपने घर का मालिक हो गया था। कोई उसका हाथ पकडऩे वाला नहीं था।

पूर्णिमा अब किस नाते से मैके आती? और फिर अब उसे इतनी फुरसत कहाँ थी! अपने घर की मालकिन थी। घर किस पर छोड़कर आती? उसे दो बच्चे और भी हुए। पहला लड़का बड़ा होकर स्कूल में पढ़ने लगा। छोटा देहात के मदरसे में पढ़ता था। अमृत साल में एक बार नाई को भेजकर उन सबकी खैर-सल्ला मँगा लिया करता था। पूर्णिमा सब प्रकार से सुखी और निश्चिन्त है, और उसकी तसल्ली के लिए इतना ही काफी था। अमृत के लड़के भी सयाने हो गये थे। वह घर-गृहस्थी की चिन्ताओं में फँसा रहता था। फिर उसकी उम्र भी चालीस से आगे निकल गयी थी। परन्तु फिर भी पूर्णिमा की स्मृति अभी तक उसके हृदय के गम्भीरतर भाग में सुरक्षित थी।

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