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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


प्रश्न था, अब क्या हो? आनंदीबाई के विषय में तो जनता ने फैसला कर दिया। बहस यह थी कि गोपीनाथ के साथ क्या व्यवहार किया जाए। कोई कहता था, उन्होंने जो कुकर्म किया है, उसका फल भोगें। आनंदीबाई को नियमित रूप से घर में रखें। कोई कहता, हमें इससे क्या मतलब, आनंदी जाने, और वह जानें, दोनों जैसे-के-तैसे हैं, ‘जैसे उदई वैसे भान, न उनके चोटी न उनके कान।’ लेकिन इन महाशय को पाठशाला के अंदर अब कदम न रखने देना चाहिए। जनता के फैसले साक्षी नहीं खोजते। अनुमान ही उसके लिए सबसे बड़ी गवाही है।

लेकिन पंडित अमरनाथ और उनकी गोष्ठी के लोग गोपीनाथ को इतने सस्ते न छोड़ना चाहते थे। उन्हें गोपीनाथ से पुराना द्वेष था। यह कल का लौंडा, दर्शन की दो-चार पुस्तकें उलट-पलट कर राजनीति में कुछ शुदबुद करके, लीडर बना हुआ विचरे; सुनहरी ऐनक लगाए, रेशमी चादर गले में डाले यों गर्व से ताके, मानो सत्य और प्रेम का पुतला है! ऐसे रँगे सियारों की जितनी कलई खोली जाए, उतना ही अच्छा। जाति को ऐसे दगाबाज, चरित्रहीन, दुर्बलात्मा सेवकों से सचेत कर देना चाहिए। पंडित अमरनाथ पाठशाला की अध्यापिकाओं और नौकरों से तहकीकात करते थे। लालाजी कब आते थे, कब जाते थे, कितनी देर रहते थे, यहाँ क्या किया करते थे। तुम लोग उनकी उपस्थिति में वहाँ जाने पाते थे या रोक थी। लेकिन ये छोटे-छोटे आदमी जिन्हें गोपीनाथ से संतुष्ट रहने का कोई कारण न था (उनकी सख्ती की नौकर लोग बहुत शिकायत किया करते थे) इस दुरवस्था में उनके ऐबों पर परदा डालने लगे। अमरनाथ ने बहुत प्रलोभन दिया, डराया, धमकाया, पर किसी ने भी गोपीनाथ के विरुद्ध साक्षी न दी।

उधर गोपीनाथ ने उसी दिन से आनंदी के घर आना जाना छोड़ दिया। दो हफ्ते तक तो वह अभागिनी किसी तरह कन्या पाठशाला में रही। पन्द्रहवें दिन प्रबंधक-समित ने उसे मकान खाली कर देने नोटिस दे दिया। महीने-भर की मुहलत देना भी उचित न समझा। अब वह दुखिया एक तंग मकान में रहने लगी। कोई पूछने वाला न था। बच्चा कमजोर, खुद बीमार, न कोई आगे न पीछे, न कोई दुःख का संगी न साथी, शिशु को गोद में लिये दिन-के-दिन बेदाना-पानी पड़ी रहती थी। एक बुढ़िया महरी मिल गई थी, जो बर्तन धोकर चली जाती थी। कभी-कभी शिशु को छाती से लगाए रात-की-रात रह जाती थी। पर धन्य है उसके धैर्य और संतोष को! लाला गोपीनाथ से न मुँह में कोई शिकायत थी, न दिल में। सोचती, इन परिस्थियों में उन्हें मुझसे नाराज ही रहना चाहिए। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं। उनके बदनाम होने से नगर की कितनी बड़ी हानि होती। सभी उन पर संदेह करते हैं। पर किसी को यह साहस तो नहीं हो सकता कि उनके विपक्ष में कोई प्रमाण दे सके।

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