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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


मगनदास का किताबी ज्ञान बहुत कम था। मगर स्वभाव की सज्जनता से वह खाली हाथ न था। हाथों की उदारता ने, जो समृद्धि का वरदान है, हृदय को भी उदार बना दिया था। उसे घटनाओं की इस कायापलट से दुख तो जरूर हुआ, आखिर इन्सान ही था, मगर उसने धीरज से काम लिया और एक आशा और भय की मिली-जुली हालत में देश को रवाना हुआ। रात का वक़्त था। जब अपने दरवाज़े पर पहुँचा तो नाच-गाने की महफ़िल सजी देखी। उसके कदम आगे न बढ़े। वह लौट पड़ा और एक दुकान के चबूतरे पर बैठकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।

इतना तो उसे यकीन था कि सेठ जी उसके साथ भी भलमनसी और मुहब्बत से पेश आयेंगे बल्कि शायद अब और भी कृपा करने लगें। सेठानियाँ भी अब उसके साथ गैरों का-सा बर्ताव न करेंगी। मुमकिन है मझली बहू जो इस बच्चे की ख़ुशनसीब माँ थी, उससे दूर-दूर रहें मगर बाकी चारों सेठानियों की तरफ़ से सेवा-सत्कार में कोई शक नहीं था। उनकी डाह से वह फ़ायदा उठा सकता था। उसके स्वाभिमान ने यह गवारा न किया कि जिस घर में मालिक की हैसियत से रहता था उसी घर में अब एक आश्रित की हैसियत से ज़िन्दगी बसर करे। उसने फैसला कर लिया कि अब यहाँ रहना न मुनासिब है, न मसलहत। मगर जाऊँ कहाँ? न कोई ऐसा फन सीखा, न कोई ऐसा इल्म हासिल किया जिससे रोज़ी कमाने की सूरत पैदा होती।

रईसाना दिलचस्पियाँ उसी वक़्त तक कद्र की निगाह से देखी जाती हैं जब तक कि वे रईसों के आभूषण रहें। जीविका बन कर वे सम्मान के पद से गिर जाती है। अपनी रोज़ी हासिल करना तो उसके लिए कोई ऐसा मुश्किल काम न था। किसी सेठ-साहूकार के यहाँ मुनीम बन सकता था, किसी कारखाने की तरफ से एजेंट हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे।

एक बड़े सेठ की लड़की जिसने लाड़-प्यार में परिवरिश पाई, उससे यह कंगाली की तकलीफ़ें क्योंकर झेली जाएंगीं। क्या मक्खनलाल की लाड़ली बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करेगी जिसे रात की रोटी का भी ठिकाना नहीं! मगर इस फ़िक्र में अपनी जान क्यों खपाऊँ। मैंने अपनी मर्ज़ी से शादी नहीं की। मैं बराबर इनकार करता रहा। सेठ जी ने जबर्दस्ती मेरे पैरों में बेड़ी डाली है। अब वही इसके ज़िम्मेदार हैं। मुझ से कोई वास्ता नहीं। लेकिन जब उसने दुबारा ठंडे दिल से इस मसले पर गौर किया तो बचाव की कोई सूरत नजर न आई। आख़िरकार उसने यह फैसला किया कि पहले नागपुर चलूँ, जरा उन महारानी के तौर-तरीके को देखूँ, बाहर-ही-बाहर उनके स्वभाव की, मिजाज की जाँच करूँ। उस वक्त तय करूँगा कि मुझे क्या करके चाहिये। अगर रईसी की बू उनके दिमाग से निकल गई है और मेरे साथ रूखी रोटियाँ खाना उन्हें मंजूर है, तो इससे अच्छा फिर और क्या, लेकिन अगर वह अमीरी ठाट-बाट के हाथों बिकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ़ है। फिर मैं हूँ और दुनिया का ग़म। ऐसी जगह जाऊँ जहाँ किसी परिचित की सूरत सपने में भी न दिखाई दे। गरीबी की जिल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में ज़िन्दगी बसर की जाए। यह जानने-पहचानने वालों की कनखियाँ और कनबतियाँ हैं जो गरीबी को यन्त्रणा बना देती हैं।

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