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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


मगनदास की हृदयभेदी दृष्टि को इसमें तो कोई संदेह नहीं था कि उसके प्रेम का आकर्षण बिलकुल बेअसर नहीं है वर्ना रम्भा की उन वफ़ा से भरी हुई ख़ातिरदरियों की तुक वह कैसे बिठाता। वफ़ा ही वह जादू है जो रूप के गर्व का सिर नीचा कर सकता है। मगर प्रेमिका के दिल में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था। कोई दूसरा मनचला प्रेमी अब तक अपने वशीकरण में कामायाब हो चुका होता लेकिन मगनदास ने दिल आशिक का पाया था और जबान माशूक की।

एक रोज शाम के वक़्त चम्पा किसी काम से बाजार गई हुई थी और मगनदास हमेशा की तरह चारपाई पर पड़ा सपने देख रहा था। रम्भा अद्भुत्त छटा के साथ आकर उसके सामने खडी हो गई। उसका भोला चेहरा कमल की तरह खिला हुआ था। और आँखों से सहानुभूति का भाव झलक रहा था। मगनदास ने उसकी तरफ़ पहले आश्चर्य और फिर प्रेम की निगाहों से देखा और दिल पर ज़ोर डालकर बोला- आओ रम्भा, तुम्हें देखने को बहुत दिन से आँखें तरस रही थीं।

रम्भा ने भोलेपन से कहा- मैं यहां न आती तो तुम मुझसे कभी न बोलते।

मगनदास का हौसला बढा, बोला- बिना मर्ज़ी पाये तो कुत्ता भी नहीं आता।

रम्भा मुस्कराई, कली खिल गई- मैं तो आप ही चली आई।

मगनदास का कलेजा उछल पड़ा। उसने हिम्मत करके रम्भा का हाथ पकड़ लिया और भावावेश से काँपती हुई आवाज में बोला- नहीं रम्भा ऐसा नहीं है। यह मेरी महीनों की तपस्या का फल है।

मगनदास ने बेताब होकर उसे गले से लगा लिया। जब वह चलने लगी तो अपने प्रेमी की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखकर बोली- अब यह प्रीत हमको निभानी होगी।

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