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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


मगनदास की आँखें डबडबा गयीं, बोला- प्यारी, मैंने फैसला कर लिया है कि दिल्ली न जाऊंगा। यह तो मैं कह ही न पाया कि सेठ जी का स्वर्गवास हो गया। बच्चा उनसे पहले ही चल बसा था। अफ़सोस सेठ जी के आखिरी दर्शन भी न कर सका। अपना बाप भी इतनी मुहब्ब्त नहीं कर सकता। उन्होंने मुझे अपना वारिस बनाया हैं। वकील साहब कहते थे कि सेठानियों मे अनबन है। नौकर-चाकर लूट-मार मचा रहे हैं। वहाँ का यह हाल है और मेरा दिल वहाँ जाने पर राजी नहीं होता। दिल तो यहाँ है वहाँ कौन जाए।

रम्भा जरा देर तक सोचती रही, फिर बोली-- तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगीं। इतने दिन तुम्हारे साथ रही। ज़िन्दगी का सुख लूटा। अब जब तक जिऊंगी इस सुख का ध्यान करती रहूंगी। मगर तुम मुझे भूल तो न जाओगे? साल में एक बार देख लिया करना, इसी झोपड़े में आकर।

मगनदास ने बहुत रोका मगर आँसू न रुक सके। बोले- रम्भा, ऐसी बातें न करो, कलेजा बैठा जाता है। मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता। इसलिए नहीं कि तुम्हारे ऊपर कोई एहसान है। तुम्हारी खातिर नहीं, अपनी खातिर। वह शान्ति, वह प्रेम, वह आनन्द जो मुझे यहाँ मिलता है और कहीं नहीं मिल सकता। ख़ुशी के साथ ज़िन्दगी बसर हो, यही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है। मुझे ईश्वर ने यह ख़ुशी यहाँ दे रक्खी है तो मैं उसे क्यो छोड़ूँ? धन-दौलत को मेरा सलाम है मुझे उसकी हवस नहीं है।

रम्भा फिर गम्भीर स्वर में बोली- मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी न बनूंगी। चाहे तुम अभी मुझे न छोड़ो, लेकिन थोड़े दिनों में तुम्हारी यह मुहब्बत न रहेगी।

मगनदास को कोड़ा लगा। जोश से बोला- तुम्हारे सिवा इस दिल में अब कोई और जगह नहीं पा सकता।

रात ज़्यादा हो गई थी। अष्टमी का चांद सोने जा चुका था। दोपहर के कमल की तरह साफ़ आसमान में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बांसुरी की आवाज, जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे ने सुरीलापन और अंधेरे ने आत्मिकता का आकर्षण दे दिया था, कानों में आ-जा रही थी कि जैसे कोई पवित्र आत्मा नदी के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों से या दूसरे किनारे के खामोश और अपनी तरफ खीचनेवाले पेड़ों से अपनी ज़िन्दगी की ग़म की कहानी सुना रही है। मगनदास सो गया मगर रम्भा की आंखों में नीद न आई।

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