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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


साल भर गुजरने के वाद एक दिन इन्दिरा ने अपने पति से कहा- क्या रम्भा को बिलकुल भूल गये? कैसे बेवफ़ा हो! कुछ याद है, उसने चलते वक़्त तुमसे क्या बिनती की थी?

मगनदास ने कहा- ख़ूब याद है। वह आवाज भी कानों में गूँज रही है। मैं रम्भा को भोली-भाली लड़की समझता था। यह नहीं जानता था कि यह त्रिया-चरित्र का जादू है। मैं अपनी रम्भा को अब भी इन्दिरा से ज़्यादा प्यार करता हूं। तुम्हें डाह तो नहीं होती?

इन्दिरा ने हँसकर जवाब दिया- डाह क्यों हो। तुम्हारी रम्भा है तो क्या मेरा मगनसिंह नहीं है। मैं अब भी उस पर मरती हूं। दूसरे दिन दोनों दिल्ली से एक राष्ट्रीय समारोह में शरीक होने का बहाना करके रवाना हो गए और सागर घाट जा पहुँचे। वह झोपड़ा, वह मुहब्बत का मन्दिर, वह प्रेम भवन फूलों और हरियाली से लहरा रहा था। चम्पा मालिन उन्हें वहाँ मिली। गांव के जमींदार उनसे मिलने के लिए आये। कई दिन तक फिर मगनसिंह को घोड़े निकालने पडे। रम्भा कुँए से पानी लाती खाना पकाती। फिर चक्की पीसती और गाती। गाँव की औरतें फिर उससे अपने कुर्ते और बच्चों की लेसदार टोपियां सिलवाती हैं। हाँ, इतना जरूर कहतीं हैं कि उसका रंग कैसा निखर आया है, हाथ पाँव कैसे मुलायम पड़ गए हैं। किसी बड़े घर की रानी मालूम होती है। मगर स्वभाव वही है, वही मीठी बोली है। वही मुरौवत, वही हँसमुख चेहरा। इस तरह एक हफ़्ता इस सरल और पवित्र जीवन का आनन्द उठाने के बाद दोनों दिल्ली वापस आए और अब दस साल गुजरने पर भी साल में एक बार उस झोपड़े के नसीब जागते हैं। वह मुहब्बत की दीवार अभी तक उन दोनों प्रेमियों को अपनी छाया में आराम देने के लिए खड़ी है।

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3. दण्ड

संध्या का समय था। कचहरी उठ गयी थी। अहलकार चपरासी जेबें खनखनाते घर जा रहे थे। मेहतर कूड़े टटोल रहा था कि शायद कहीं पैसे मिल जायें। कचहरी के बरामदों में सांडों ने वकीलों की जगह ले ली थी। पेड़ों के नीचे मुहर्रिरों की जगह कुत्ते बैठे नजर आते थे।

इसी समय एक बूढ़ा आदमी, फटे-पुराने कपड़े पहने, लाठी टेकता हुआ, जंट साहब के बंगले पर पहुंचा और सायबान में खड़ा हो गया। जंट साहब का नाम था मिस्टर जी0 सिन्हा।

अरदली ने दूर ही से ललकारा- कौन सायबान में खड़ा है? क्या चाहता है।

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