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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


भामा– कह दो, घर में रुपये नहीं हैं। तुमसे न कहते बने तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ।

ब्रजनाथ– कहने को तो मैं कह दूँ, लेकिन उन्हें विश्वास न आएगा, समझेंगे बहाना कर रहे हैं।

भामा– समझेंगे, समझा करें।

ब्रजनाथ– मुझसे तो ऐसी बेमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन का साथ ठहरा, कैसे इनकार करूँ?

भामा– अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी हूँ कि मेरे पास रुपये नहीं हैं।

ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि भामा के पास रुपये हैं, लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह के संकल्प को दृढ़ कर दिया। संदूक से दो गिन्नियां निकालीं और गोरेलाल को देकर बोले– भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपये दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं। मैं इसी समय देने जा रहा था। यदि कल रुपये न पहुँचे, तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा।

गोरेलाल ने मन में कहा– अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी? और गिन्नियां जेब में रखकर घर की राह ली।

आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे हुए गोरेलाल का इंतजार कर रहे हैं।

पांच बज गए, गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आंख रास्ते की तरफ लगी हुई थी। हाथ में एक पत्र था, लेकिन पढ़ने में जी न लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे। लेकिन आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है; आते ही होंगे। छह बजे। गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वे आ रहे हैं। जरूर वे ही हैं। वैसा ही अचकन है। वैसी ही टोपी। चाल भी वही है। इसी तरफ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझ-सा उतरता मालूम हुआ। लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में विलीन हो गई।

ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वे एक बार कुरसी पर से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े होकर सड़क के दोनों तरफ निगाह दौड़ायी। कहीं पता नहीं।

दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देखकर गोरेलाल का भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता!

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