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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद ब्रजनाथ तकिए के सहारे बैठे थे! वे बार-बार भामा को प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके बाह्य सौन्दर्य की शोभा देखी थी। आज वह उसका आत्मिक सौन्दर्य देख रहे हैं।

तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों से सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपये लिए और दोनों हाथ फैलाकर आशीर्वाद दिया– दुर्गाजी तुम्हारा कल्याण करें!

तुलसी का वर्णहीन मुख यों खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियाँ खिल जाती हैं, सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियाँ मिटती देख पड़ी। ऐसा मालूम होता था, मानो उसका कायाकल्प हो गया।

वहाँ से आकर ब्रजनाथ अपने द्वार पर बैठ हुए थे कि गोरेलाल आकर बैठ गए। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।

गोरेलाल बोले– भाई साहब, कैसी तबीयत है?

ब्रजनाथ– बहुत अच्छी तरह हूँ।

गोरेलाल– मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे इसका खेद है कि आपके रुपये देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख को घर से एक आवश्यक पत्र आ गया और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहाँ की विपत्ति-कथा कहूँ तो समाप्त न हो। लेकिन आपकी बीमारी का शोक-समाचार सुनकर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिए रुपये हाजिर हैं। इस विलम्ब के लिये अत्यन्त लज्जित हूँ।

ब्रजनाथ का क्रोध शांत हो गया। विनय में कितनी शक्ति है! बोले– जी हाँ, बीमार तो था, लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ। आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजिएगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।

गोरेलाल विदा हो गए तो ब्रजनाथ रुपया लिये हुए भीतर आये और भामा से बोले– ये लो अपने रुपये, गोरेलाल दे गए।

भामा ने कहा– ये मेरे नहीं हैं तुलसी के हैं, एक बार पराया धन लेकर सीख गई।

‘लेकिन तुलसी के तो पूरे रुपये दे दिये गये।’

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