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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


एक तो अंधेरी अटपटी राह, बेचारा घोड़ा अटक-अटक कर चलता था। वह अपनी ही टापों की ध्वनि सुनकर कभी पहाड़ियों से टकराकर लौटती थी, चौंक पड़ता था। पहर रात जा चुकी थी, धीरे-धीरे चारों ओर चांदनी छिटकने लगी थी। दूर से कंटालिया गांव अब धुंआ-सा दिखाई पड़ा था। वीर दुर्गादास देश की दशा पर खीझता चला जा रहा था। अकस्मात् तलवारों की झनझनाहट सुन पड़ी। चौकन्ना हो, अपनी तलवार खींच ली और उसी ओर बढ़ा, देखा कि दो राजपूत को बाईस मुगल घेरे हुए हैं। क्रोध में आकर मुगलों पर टूट पड़ा। दो-चार मारे गये और दो-चार घायल हुए। मुगलों ने पीठ दिखाई और 'मदद-मदद' चिल्लाने लगे! वीर दुर्गादास ने कहा- ‘दोनों राजपूत में से एक तो मारा गया है और दूसरा घायल चाहता था कि घायल राजपूत को उठा ले जाय, परन्तु न हो सका। चन्द्रमा के प्रकाश में देखा कि दौड़ते हुए बीस-पच्चीस मुगल चले आ रहे हैं। वीर दुर्गादास ने उनको इतना भी समय न दिया, कि वे अपने शत्रु को तो देख लेते, दस-ग्यारह को गिरा दिया। खून! खून! जोरावर खां का खून! चिल्लाते हुए मुगल पीछे हटे थे, कि दुर्गादास ने सोचा, अब यहां ठहरना चतुराई नहीं। बस, घायल राजपूत को उठाकर कल्याणपुर की ओर भाग निकला। थोड़ी ही रात रहे घर पहुंचा। बूढ़ी माता दुर्गादास और दूसरे राजपूत को रक्त से नहाया हुआ देख घबरा उठी। तुरन्त ही दोनों की मरहम-पट्टी हुई थी, थोड़ी देर बाद जब दुर्गादास कुछ स्वस्थ हुआ तो माता ने पूछा बेटा, तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? दुर्गादास ने अपनी बीती कह सुनाई। माता ने घायल राजपूत को देखा, तो पहचान गई। दुर्गादास से कहा- ‘क्या तुम इन्हें नहीं पहचानते? दुर्गादास के बोलने से पहले ही घायल राजपूत, जो अब सचेत हो चुका था, बोल उठा मां जी, दुर्गादास मुझे पहचानते तो हैं; परन्तु इस समय नहीं पहचान सके, क्योंकि पहले के देखते अब मुझमें अन्तर भी तो है! भैया, मैं आपका चरण-सेवक महासिंह हूं! बूढ़ी मां जी महासिंह पर हाथ फेरती हुई बोली हां, तू तो बहुत दुर्बल हो गया है। बेटा ऐसी क्या विपत्ति पड़ी? महासिंह अभी बोला भी न था। कि घर का सेवक नाथू दौड़ता हुआ आया और बोला महाराज, भागो। हथियारबन्द मुगल सिपाही चिल्लाते चले आ रहे हैं।

मां जी ने कहा- ‘बेटा, कहीं भागकर अपने प्राण बचाओ मुगल बहुत हैं, तुम अकेले हो और महासिंह घायल है, व्यर्थ प्राण देना चतुराई नहीं। दुर्गादास बोले मां जी, तुम सबको संकट में छोड़कर मैं अपने प्राणों की रक्षा करूं? महासिंह ने समझाया नहीं भाई, मां जी का कहना मानो। जिन्दा रहोगे, तभी देश का उद्धार कर सकोगे।

दुर्गादास ने कहा- ‘देखो, मुगलों की तलवारों की झन-झनाहट सुन पड़ती है। वह अब आ पहुंचे। भागने का समय कहां रहा? और जायें भी तो कहां जायं?

नाथू बोला महाराज! आप लोग पीछे वाले अन्धे कुएं में उतर जाएं।

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