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प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


ठाकुर चला गया और दूसरे दिन उसकी लाश नदी में तैरती हुई मिली। लोगों ने समझा तड़के नहाने आया होगा, पांव फिसल गया होगा। महीनों तक गांव में इसकी चर्चा रही, पर तुलिया ने जबान तक न खोली, उधर का आना-जाना बन्द कर दिया।

बंसीसिंह के मरते ही छोटे भाई ने जायदाद पर कब्जा कर लिया और उसकी स्त्री और बालक को सताने लगा। देवरानी ताने देती, देवर ऐब लगाता। आखिरं अनाथ विधवा एक दिन जिन्दगी से तंग आकर घर से निकल पड़ी। गांव में सोता पड़ गया था। तुलिया भोजन करके हाथ में लालटेन लिये गाय को रोटी खिलाने निकली थी। प्रकाश में उसने ठकुराइन को दबे पांव जाते देखा। सिसकती और अंचल से आंसु पोंछती जाती थी। तीन साल का बालक गोद में था।

तुलिया ने पूछा- इतनी रात गये कहां जाती हो ठकुराइन? सुनो, बात क्या है, तुम तो रो रही हो।

ठकुराइन घर से जा तो रही थी, पर उसे खुद न मालूम था कहां। तुलिया की ओर एक बार भीत नेत्रों से देखकर बिना कुछ जवाब दिये आगे बढ़ी। जवाब कैसे देती? गले में तो आंसू भरे हुए थे और इस समय न जाने क्यों और उमड़ आये थे।

तुलिया सामने आकर बोली- जब तक तुम बता न दोगी, मैं एक पग भी आगे न जाने दूंगी।

ठकुराइन खड़ी हो गयी और आंसू-भरी आंखों से क्रोध में भरकर बोली- तू क्या करेगी पूछकर? तुझसे मतलब?

‘मुझसे कोई मतलब ही नहीं? क्या मैं तुम्हारे गांव में नहीं रहती? गांव वाले एक-दूसरे के दुख-दर्द में साथ न देंगे तो कौन देगा?’

‘इस जमाने में कौन किसका साथ देता है तुलिया? जब अपने घरवालों ने ही साथ नहीं दिया और तेरे भैया के मरते ही मेरे खून के प्यासे हो गये, तो फिर मैं और किससे आशा रखूं? तुझसे मेरे घर का हाल कुछ छिपा है? वहां मेरे लिए अब जगह नहीं है। जिस देवर-देवरानी के लिए मैं प्राण देती थी, वही अब मेरे दुश्मन हैं। चाहते हैं कि यह एक रोटी खाय और अनाथों की तरह पड़ी रहे। मैं रखेली नहीं हूं उढ़री हूं, ब्याहता हूं, दस गांव के बीच में ब्याह के आयी हूं। अपनी रत्ती-भी जायदाद न छोडूंगी ओर अपना राधा लेकर रहूंगी।’

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