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प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


एक महीना गुजर गया। तुलिया ने ठाकुर पर मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बंसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फंस गया। अपना ईमान और धर्म और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे उतनी ही दूर थी जितनी पहले।

एक दिन वह तुलिया से बोला- इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया? चल कहीं भाग चलें।

तुलिया ने फंदे को और कसा- हां, और क्या। जब तुम मुंह फेर लो तो कहीं की न रहूं। दीन से भी जाऊं, दुनिया से भी!

ठाकुर ने शिकायत के स्वर में कहा- अब भी तुझे मुझ पर विश्वास नहीं आता?

‘भौंरे फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं।’

‘और पतंगे जलकर राख नहीं हो जाते?’

‘पतियाऊं कैसे?’

‘मैंने तेरा कोई हुक्म टाला है?’

‘तुम समझते होगे कि तुलिया को एक रंगीन साड़ी और दो-एक छोटे-मोटे गहने देकर फंसा लूंगा। मैं ऐसी भोली नहीं हूं।’

तुलिया ने ठाकुर के दिल की बात भांप ली थी। ठाकुर हैरत में आकर उसका मुंह ताकने लगा।

तुलिया ने फिर कहा- आदमी अपना घर छोड़ता है तो पहले कहीं बैठने का ठिकाना कर लेता है।

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