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प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था। मंगल का यह मुतालबा सुनकर साथियों से बोला, 'देखते हो इसकी बदमाशी, भंगी है न !'

तीनों ने मंगल को घेर लिया और उसे जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके, 'बोला,चल घोड़े, चल !

मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे। माँ ने सुना, सुरेश कहीं रो रहा है। सुरेश कहीं रोये, तो उनके तेज कानों में जरूर भनक पड़ जाती थी और उसका रोना भी बिलकुल निराला होता था, जैसे छोटी लाइन के इंजन की आवाज। महरी से बोली, 'देख तो, सुरेश कहीं रो रहा है, पूछ तो किसने मारा है।'

इतने में सुरेश खुद आँखें मलता हुआ आया। उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था। माँ मिठाई या मेवे देकर आँसू पोंछ देती थीं। आप थे तो आठ साल के, मगर थे बिलकुल गावदी। हद से ज्यादा प्यार ने उसकी बुद्धि के साथ वही किया था, जो हद से ज्यादा भोजन ने उसकी देह के साथ।

माँ ने पूछा, 'क्यों रोता है सुरेश, किसने मारा?'

सुरेश ने रोकर कहा, 'मंगल ने छू दिया।'

माँ को विश्वास न आया। मंगल इतना निरीह था कि उससे किसी तरह की शरारत की शंका न होती थी; लेकिन जब सुरेश कसमें खाने लगा, तो विश्वास करना लाजिम हो गया। मंगल को बुलाकर डाँटा, 'क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी। मैंने तुझसे कहा, था, सुरेश को कभी मत छूना, याद है कि नहीं, बोल।'

मंगल ने दबी आवाज से कहा, 'याद क्यों नहीं है।'

'तो फिर तूने उसे क्यों छुआ?'

'मैंने नहीं छुआ।'

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