लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

247 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


‘मुझे अब उस ऐश का मोह नहीं रहा।’

‘दिल से कहती हो?’

‘सच्चे दिल से।’

उमानाथ एक मिनट तक चुप रहने के बाद फिर बोले- मैं आकर तुमसे यह वृत्तान्त कहता तो तुम्हें विश्वास आता या नहीं, सच कहना?

‘कभी नहीं, मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकती कि अपने स्वार्थ के लिए कोई आदमी दुनिया को विष खिला सकता है!’

‘मुझे सारा हाल पुलिस के सब इन्सपेक्टर से मालूम हो गया था। मैंने उसे खूब शराब पिला दी थी कि नशे में बहकेगा जरूर और सब कुछ उगल देगा।’

‘ललचता तो तुम्हारा जी भी था।’

‘हाँ ललचता तो था, और अब भी ललच रहा है। मगर ऐश करने के लिए जिस हुनर की जरूरत है, वह कहाँ से लाऊँगा?’

‘ईश्वर न करे, वह हुनर तुममें आये। मुझे तो उस बेचारे पर तरस आती है। मालूम नहीं खैरियत से घर पहुँच गया या नहीं!’

‘उसकी कार थी। कोई चिन्ता नहीं।’

रूपकुमारी एक क्षण जमीन की तरफ ताकती रही। फिर बोली- तुम मुझे दुलारी के घर पहुँचा दो। अभी शायद मैं उसकी कुछ मदद कर सकूँ। जिस बाग की वह सैर कर रही है उसके चारों ओर निशाचर घात लगाये बैठे हैं। शायद मैं उसे बचा सकूँ।

उमानाथ ने देखा, उसकी छवि कितनी दया-पुलकित हो उठी है।

0 0 0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book