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प्रेमचन्द की कहानियाँ 18

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9779

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अठारहवाँ भाग


एक दिन मोती ने मूक-भाषा में कहा- अब तो नहीं सहा जाता, हीरा।

'क्या करना चाहते हो?'

'एकाध को सींगो पर उठाकर फेंक दूँगा।'

'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमे रोटियाँ हैं, उसी की लड़की है, जो घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ हो जायगी?'

'मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस लड़की मारती है।'

'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।'

'तुम तो किसी तरह निकलने नहीं देते हो। बताओ, तुड़ा कर भाग चले।'

'हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?'

'इसका एक उपाय हैं। पहले रस्सी को थोड़ा सा चबा दो। फिर एक झटके में जाती हैं।'

रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गयी, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।

सहसा घर का द्वार खुला और वही लड़की निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूँछे खड़ी हों गयी। उसने उनके माथे सहलाये और बोली- खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ के लोग मार डालेंगे। आज ही घर में सलाह हो रही हैं कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जायँ।

उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे। मोती ने अपनी भाषा में पूछा- अब चलते क्यों नहीं।

हीरा ने कहा- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आयेगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।

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