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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


वुद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी।

रविवार का दिन था। संध्या समय इंद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था। आपस में हास-परिहास हो रहा था। मानी का आगमन इस परिहास का विषय था।

एक मित्र बोले- क्यों इंद्र, तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्या सलाह देते हो? बनायें कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अंतर है।

इंद्रनाथ ने मुस्कराकर कहा- यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलहों आना तकदीर का। अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरकतुल्य है, तो दूसरी दशा में स्वर्ग से कम नहीं।

दूसरे मित्र बोले- इतनी आजादी तो भला क्या रहेगी?

इंद्रनाथ- इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर में भी न बनवा सको।

'श्रीमतीजी, तो आज रात की गाड़ी से आ रही हैं?'

'हाँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?'

'यह भी पूछने की बात है! अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी।'

सहसा तार के चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।

इंद्रनाथ का चेहरा खिल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका हृदय धक हो गया, साँस रुक गयी, सिर घूमने लगा। आँखों की रोशनी लुप्त हो गयी, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हो। उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया ओर दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे और क्या हो गया!

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