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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


इतने में थानेदार साहब ने आ कर भीड़ हटा दी। मुंशी जी ने उन्हें धन्यवाद दिया और घर चले। एक कान्स्टेबल भी रक्षार्थ उनके साथ चला।

मुंशी जी के चारों मित्रों ने बोतलें फेंक दीं और आपस में बातें करते हुए चले।

झिनकू– एक बेर हमार एक्का बेगार में पकड़ा जात रहे तो यही स्वामीजी चपरासी से कह-सुन के छुड़ाये दिहेन रहा।
 
रामबली– पिछले साल जब हमारे घर में आग लगी थी तब भी तो यही सेवा-समिति वालों को लेकर पहुँच गये थे, नहीं तो घर में एक सूत न बचता।

बेचन– मुख्तार अपने सामने किसी को गिनते ही नहीं। आदमी कोई बुरा काम करता है तो छिप के करता है, यह नहीं कि बेहाई पर कमर बाँध ले।

झिनकू– भाई, पीठ पीछे कोऊ की बुराई न करै चाही। और जौन कुछ होय पर आदमी बड़ा अकबाली है। उतने आदमियन के बीच माँ कैसा घुसत चला गवा।

रामबली– यह कोई अकबाल नहीं है। थानेदार न होता तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाता।

बेचन– मुझे तो कोई पचास रुपये देता तो भी गली में पैर न रख सकता। शर्म से सिर ही नहीं उठता था!

ईदू– इनके साथ आ कर आज बड़ी मुसीबत में फँस गया। मौलाना जहाँ देखेंगे वहाँ आँड़े हाथों लेंगे। दीन के खिलाफ ऐसा काम क्यों करें कि शर्मिन्दा होने पड़े। मैं तो आज मारे शर्म के गड़ गया। आज तौबा करता हूँ। अब इसकी तरफ आँख उठा कर भी न देखूँगा।

रामबली– शराबियों की तोबा कच्चे धागे से मजबूत नहीं होती।

ईदू– अगर फिर मुझे पीते देखना तो मुँह में कालिख लगा देना।

बेचन– अच्छा तो इसी बात पर आज से मैं इसे छोड़ता हूँ। अब पीऊँ तो गऊ-रक्त बराबर।

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