कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
मोटे.- 'बस, अब विलम्ब न करो। तैयारी करो, चलो।'
सोना- 'कितनी फंकी बना लूँ?'
मोटे.- 'यह मैं नहीं जानता। बस, यही आदर्श सामने रखो कि अधिक से अधिक लाभ हो।
सहसा सोनादेवी को एक बात याद आ गयी। बोली, अच्छा, इन बिछुओं को क्या करूँगी? '
मोटेराम ने त्योरी चढ़ा कर कहा, 'इन्हें उठाकर रख देना, और क्या करोगी? '
सोना- 'हाँ जी, क्यों नहीं। उतार कर रख क्यों न दूँगी?
मोटे.- 'तो क्या तुम्हारे बिछुए पहने ही से मैं जी रहा हूँ? जीता हूँ पौष्टिक पदार्थों के सेवन से। तुम्हारे बिछुओं के पुण्य से नहीं जीता।'
सोना- 'नहीं भाई, मैं बिछुए न उतारूँगी।'
मोटेराम ने सोच कर कहा, 'अच्छा, पहने चलो, कोई हानि नहीं। गोवर्धनधारी यह बाधा भी हर लेंगे। बस, पाँव में बहुत-से कपड़े लपेट लेना। मैं कह दूँगा, इन पंडित जी को फीलपाँव हो गया। क्यों, कैसी सूझी? '
पंडिताइन ने पतिदेव को प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देख कर कहा, 'जन्म भर पढ़ा नहीं है?'
संध्या-समय पंडित जी ने पाँचों पुत्रों को बुलाया और उपदेश देने लगे, 'पुत्रो, कोई काम करने के पहले खूब सोच-समझ लेना चाहिए कि कैसा क्या होगा। मान लो, रानी साहब ने तुम लोगों का पता-ठिकाना पूछना आरम्भ किया, तो तुम लोग क्या उत्तर दोगे? यह तो महान् मूर्खता होगी कि तुम सब मेरा नाम लो। सोचो, कितने कलंक और लज्जा की बात होगी कि मुझ-जैसा विद्वान् केवल भोजन के लिए इतना बड़ा कुचक्र रचे। इसलिए तुम सब थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि मेरे पुत्र हो। कोई मेरा नाम न बतलाये। संसार में नामों की कमी नहीं, कोई अच्छा-सा नाम चुन कर बता देना। पिता का नाम बदल देने से कोई गाली नहीं लगती। यह कोई अपराध नहीं।'
अलगू. - 'आप ही बता दीजिए।'
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