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प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


चिंता. - 'जनेऊ हाथ में ले कर कहता हूँ।'

मोटे - 'तुम्हारी शपथ का विश्वास नहीं।'

चिंता. - 'तुम मुझे इतना धूर्त समझते हो? '

मोटे - 'इससे कहीं अधिक। तुम गंगा में डूब कर शपथ खाओ, तो भी मुझे विश्वास न आये।'

चिंता.- 'दूसरा यह बात कहता, तो मूँछ उखाड़ लेता।'

मोटे- 'तो फिर आ जाओ !'

चिंता.- 'पहले पंडिताइन से पूछ आओ।'

मोटेराम यह भस्मक व्यंग्य न सह सके। चट उठ बैठे और पंडित चिंतामणि का हाथ पकड़ लिया। दोनों मित्रों में मल्ल-युद्ध होने लगा। दोनों हनुमान जी की स्तुति कर रहे थे और इतने जोर से गरज-गरजकर मानो सिंह दहाड़ रहे हों। बस ऐसा जान पड़ता था, मानो दो पीपे आपस में टकरा रहे हों।'

मोटे - 'महाबली विक्रम बजरंगी।'

चिंता. - 'भूत-पिशाच निकट नहिं आवे।'

मोटे - 'जय-जय-जय हनुमान गोसाईं।'

चिंता. - 'प्रभु, रखिए लाज हमारी।'

मोटे - '(बिगड़कर) यह हनुमान-चालीसा में नहीं है।'

चिंता. - 'यह हमने स्वयं रचा है। क्या तुम्हारी तरह की यह रटंत विद्या है ! जितना कहो, उतना रच दें।'

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