कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
|
2 पाठकों को प्रिय 139 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
चिंता. - 'जनेऊ हाथ में ले कर कहता हूँ।'
मोटे - 'तुम्हारी शपथ का विश्वास नहीं।'
चिंता. - 'तुम मुझे इतना धूर्त समझते हो? '
मोटे - 'इससे कहीं अधिक। तुम गंगा में डूब कर शपथ खाओ, तो भी मुझे विश्वास न आये।'
चिंता.- 'दूसरा यह बात कहता, तो मूँछ उखाड़ लेता।'
मोटे- 'तो फिर आ जाओ !'
चिंता.- 'पहले पंडिताइन से पूछ आओ।'
मोटेराम यह भस्मक व्यंग्य न सह सके। चट उठ बैठे और पंडित चिंतामणि का हाथ पकड़ लिया। दोनों मित्रों में मल्ल-युद्ध होने लगा। दोनों हनुमान जी की स्तुति कर रहे थे और इतने जोर से गरज-गरजकर मानो सिंह दहाड़ रहे हों। बस ऐसा जान पड़ता था, मानो दो पीपे आपस में टकरा रहे हों।'
मोटे - 'महाबली विक्रम बजरंगी।'
चिंता. - 'भूत-पिशाच निकट नहिं आवे।'
मोटे - 'जय-जय-जय हनुमान गोसाईं।'
चिंता. - 'प्रभु, रखिए लाज हमारी।'
मोटे - '(बिगड़कर) यह हनुमान-चालीसा में नहीं है।'
चिंता. - 'यह हमने स्वयं रचा है। क्या तुम्हारी तरह की यह रटंत विद्या है ! जितना कहो, उतना रच दें।'
|