कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
मोटे- 'झूठ बोलते हो। कोई इस तरह नहीं डकार सकता।'
चिंता.- 'अच्छा, तो आ कर सुन लेना। डर कर भाग न जाओ, तो सही।'
एक क्षण में दोनों मित्र मोटर पर बैठे और मोटर चली। रास्ते में पंडित चिंतामणि को शंका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि मैं पंडित मोटेराम का पिछलग्गू समझा जाऊँ और मेरा यथेष्ट सम्मान न हो। उधर पंडित मोटेराम को भी भय हुआ कि कहीं ये महाशय मेरे प्रतिद्वंद्वी न बन जाएँ और रानी साहब पर अपना रंग जमा लें।
दोनों अपने-अपने मंसूबे बाँधने लगे। ज्यों ही मोटर रानी के भवन में पहुँची दोनों महाशय उतरे। अब मोटेराम चाहते थे कि पहले मैं रानी के पास पहुँच जाऊँ और कह दूँ कि पंडित को ले आया, और चिंतामणि चाहते थे कि पहले मैं रानी के पास पहुँचूँ और अपना रंग जमा दूँ। दोनों कदम बढ़ाने लगे। चिंतामणि हल्के होने के कारण जरा आगे बढ़ गये, तो पंडित मोटेराम दौड़ने लगे। चिंतामणि भी दौड़ पड़े। घुड़दौड़-सी होने लगी। मालूम होता था कि दो गैंडे भागे जा रहे हैं। अंत में मोटेराम ने हाँफते हुए कहा, 'राजसभा में दौड़ते हुए जाना उचित नहीं।'
चिंता.- 'तो तुम धीरे-धीरे आओ न, दौड़ने को कौन कहता है।'
मोटे- 'जरा रुक जाओ, मेरे पैर में काँटा गड़ गया है।'
चिंता.- 'तो निकाल लो, तब तक मैं चलता हूँ।'
मोटे- 'मैं न कहता, तो रानी तुम्हें पूछती भी न !'
मोटेराम ने बहुत बहाने किये, पर चिंतामणि ने एक न सुना। भवन में पहुँचे। रानी साहब बैठी कुछ लिख रही थीं और रह-रहकर द्वार की ओर ताक लेती थीं कि सहसा पंडित चिंतामणि उनके सामने आ खड़े हुए और यों स्तुति करने लगे, 'हे हे यशोदे, तू बालकेशव, मुरारनामा...'
रानी- ' क्या मतलब? अपना मतलब कहो?'
चिंता.- 'सरकार को आशीर्वाद देता हूँ सरकार ने इस दास चिंतामणि को निमंत्रित करके कितना अनुग्रसित (अनुगृहीत) किया है, उसका बखान शेषनाग अपनी सहस्त्र जिह्ना द्वारा भी नहीं कर सकते।'
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