लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

139 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


चिंता.- 'भंडारी जी, तुम परोसने में बड़ा विलम्ब करते हो ! क्या भीतर जा कर सोने लगते हो? '

भंडारी- 'चुपाई मारे बैठे रहो, जौन कुछ होई, सब आय जाई। घबड़ाये का नहीं होत। तुम्हारे सिवाय और कोई जिवैया नहीं बैठा है।'

मोटे- 'भैया, भोजन करने के पहले कुछ देर सुगंध का स्वाद तो लो।'

चिंता.- 'अजी, सुगंध गया चूल्हे में, सुगंध देवता लोग लेते हैं। अपने लोग तो भोजन करते हैं।'

मोटे- 'अच्छा बताओ, पहले किस चीज पर हाथ फेरोगे?'

चिंता.- 'मैं जाता हूँ भीतर से सब चीजें एक साथ लिये आता हूँ।'

मोटे- 'धीरज धारो भैया, सब पदार्थों को आ जाने दो। ठाकुर जी का भोग तो लग जाए।'

चिंता.- 'तो बैठे क्यों हो, तब तक भोग ही लगाओ। एक बाधा तो मिटे। नहीं तो लाओ, मैं चटपट भोग लगा दूँ। व्यर्थ देर करोगे।'

इतने में रानी आ गयीं। चिंतामणि सावधान हो गये। रामायण की चौपाइयों का पाठ करने लगे,

रहा एक दिन अवध अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
कौशलेश दशरथ के जाये। हम पितु बचन मानि बन आये॥
उलटि पलटि लंका कपि जारी। कूद पड़ा तब सिंधु मझारी॥
जेहि पर जा कर सत्य सनेहू। सो तेहि मिले न कछु संदेहू॥
जामवंत के वचन सुहाये। सुनि हनुमान हृदय अति भाये॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book