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प्रेमचन्द की कहानियाँ 21

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9782

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग


अक्षय बाबू को देखते ही इधर-उधर के लोग आकर उनके चारों ओर जमा हो गए। हर शख्स हैरत से एक-दूसरे का मुंह ताकता था। होंठ रुमाल की आड़ ढूंढने लगे, आँखें सरगोशियाँ करने लगीं। हर शख्स ने गैरमामूली तपाक से उनका मिज़ाज पूछा। शराबियों की मजलिस और पीने की मनाही करने वाली हजरते वाइज की तशरीफआवरी का नज्ज़ारा पेश हो गया।

अक्षय बाबू बहुत झेंप रहे थे। उनकी आँखें ऊपर को न उठती थीं। इसलिए जब मिजाज़ापुर्सियों का तूफान दूर हुआ तो उन्होंने अपनी हरे कपड़ों वाली स्त्री की तलाश में चारों तरफ एक निगाह दौड़ायी और दिल में कहा- यह शोहदे हैं, मसखरे, मगर अभी-अभी उनकी आँखें खुली जाती हैं। मैं दिखा दूँगा कि मुझ पर भी सुन्दरियों की दृष्टि पड़ती है। ऐसी सुन्दरियाँ भी हैं जो सच्चे दिल से मेरे मिजाज़ की कैफियत पूछती हैं और जिनसे अपना दर्देदिल कहने में मैं भी रंगीन-बयान हो सकता हूँ। मगर उस हरे कपड़ों वाली प्रेमिका का कहीं पता न था। निगाहें चारों तरफ से घूम-घामकर नाकाम वापस आयीं।

आध घंटे के बाद नाटक शुरू हुआ। बाबू साहब निराश भाव से पैर उठाते हुए थियेटर हाल में गए और कुर्सी पर बैठ गए। बैठ क्या गए, गिर पड़े। पर्दा उठा। शकुन्तला अपनी दोनों सखियों के साथ सिर पर घड़ा रक्खे पौधों को सींचती हुई दिखाई दी। दर्शक बाग-बाग हो गये। तारीफों के नारे नाबुलन्द हुए। शकुन्तला का जो काल्पनिक चित्र खिंच सकता है, वह आँखों के सामने खड़ा था - वही प्रेमिका का खुलापन, वही आकर्षक गम्भीरता, वही मतवाली चाल, वही शर्मीली आँखें। अक्षय बाबू पहचान गए यह सुन्दर हँसमुख हेमवती थी।

बाबू अक्षयकुमार का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। इसने मुझसे वादा किया था कि मैं नाटक में न जाऊँगी। मैंने घंटों इस समझाया। अपनी असमर्थता लिखने पर तैयार थी। मगर सिर्फ-दूसरों को रिझाने और लुभाने के लिए, सिर्फ दूसरों के दिलों में अपने रूप और अपनी अदाओं को जादू फूँकने के लिए, सिर्फ दूसरी औरतों को जलाने के लिए उसने मेरी नसीहतों का और अपने वादे का, यहाँ तक कि मेरी अप्रसन्नता का भी जरा भी खयाल न किया !

हेमवती ने भी उड़ती हुई निगाहों से उनकी तरफ देखा। उनके बाँकपन पर उसे जरा भी ताज्जुब न हुआ। कम-से-कम वह मुस्करायी नहीं।

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