कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 22 प्रेमचन्द की कहानियाँ 22प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग
कैलासी– (हँसकर) मर जाऊँगी तो आपके सिर से एक विपत्ति टल जाएगी। यह कह कर उसने उधर की राह ली। भोजन की थाली परसी रह गयी।
तब हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा– जान पड़ता है, बहुत जल्द यह पाठशाला भी बन्द करनी पड़ेगी।
जागेश्वरी– बिना माँझी के नाव पार लगाना बहुत कठिन है। जिधर हवा पाती है, उधर ही बह जाती है।
हृदयनाथ– जो रास्ता निकालता हूँ वही कुछ दिनों के बाद किसी दल-दल में फँसा देता है। अब फिर बदनामी के सामान होते नज़र आ रहे हैं। लोग कहेंगे, लड़की दूसरों के घर जाती है और कई-कई दिन पड़ी रहती है। क्या करूँ, कह दूँ, लड़कियों को न पढ़ाया करो?
जागेश्वरी– इसके सिवा और हो क्या सकता है।
कैलाशकुमारी दो दिन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने पाठशाला बंद कर देने की समस्या उसके सामने रखी। कैलासी ने तीव्र स्वर से कहा– अगर आपको बदनामी का इतना भय है तो मुझे विष दे दीजिए। इसके सिवा बदनामी से बचने का और कोई उपाय नहीं है।
हृदयनाथ– बेटी संसार में रहकर तो संसार की-सी करनी पड़ेगी।
कैलासी– तो कुछ मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे क्या चाहता है। मुझमें जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊँ। मुझसे यह नहीं हो सकता कि अपने को अभागिनी, दुखिया समझूँ और एक टुकडा रोटी खाकर पड़ी रहूँ। ऐसा क्यों करूँ? संसार मुझे जो चाहे समझे, मैं अपने को अभागिनी नहीं समझती। मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती हूँ। मैं इसे घोर अपमान समझती हूँ कि पग-पग पर मुझ पर शंका की जाए, नित्य कोई चरवाहों की भाँति मेरे पीछे लाठी लिए घूमता रहे कि किसी खेत में न जाने पड़ूँ। यह दशा मेरे लिए असह्य है।
यह कह कर कैलाशकुमारी वहाँ से चली गयी कि कहीं मुंह से अनर्गल शब्द न निकल पड़ें। इधर कुछ दिनों से उसे अपनी बेकसी का यर्थाथ ज्ञान होने लगा था स्त्री पुरुष की कितनी अधीन है, मानो स्त्री को विधाता ने इसलिए बनाया है कि पुरुषों के अधीन रहे। यह सोच कर वह समाज के अत्याचार पर दाँत पीसने लगती थी।
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