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प्रेमचन्द की कहानियाँ 24

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9785

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौबीसवाँ भाग


अस्तु, एक शुभ मुहूर्त्त देखकर बाबा दुर्लभदास और आबिद अली दलबल के साथ, बड़ी धूमधाम से निकले। आगे-आगे ऊँटों पर नगाड़े थे, उनके पीछे नाना प्रकार की साम्प्रदायिक पताकाएँ थीं। इनके पीछे शंख और घंटे बज रहे थे। फिर साधुओं के दल, कोई हाथी पर सवार था और कोई सजे हुए घोड़े पर। शिष्य लोग छत्र लगाए चँवर हिलाते चले आते थे। इस प्रकार यह जुलूस नगर के चक्कर लगाता और दर्शकों को विस्मित करता हुआ एक ऊँचे पहाड़ी टीले पर जा पहुँचा। यहाँ साधुगण अपने-अपने आसन लगाकर बैठ गए और इंद्र की आराधना करने लगे। किसी ने समाधि ली, कोई प्राणायाम में मग्न हुआ, कोई अपने योगासनों के कौशल दिखाने लगा। सीताराम-प्रेमियों ने उच्च स्वर से 'रामचरितमानस' की चौपाइयों का गान करना आरंभ किया। कृष्ण के भक्त कीर्तन करने लगे।

पूरे तीन घंटों तक ये महानुभाव अपने-अपने जप-तप में दत्तचित्त रहे। लाखों मनुष्य नीचे खड़े-खड़े इस दृश्य को कौतूहल से देख रहे थे और बारंबार आकाश की ओर ताक रहे थे कि मेघ उठ रहे हैं या नहीं।

जब मध्याह्न हो गया, सूर्यदेव सिर पर पहुँचे, उनकी प्रखर किरणें लंबी हुईं, तब साधुगण व्याकुल होकर वहाँ से उठ खड़े हुए। प्रजा हताश हो गई। बाबा दुर्लभदास ने अंत में उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- ''सज्जनो, तुम्हारे देश में इस दुर्दिन का आना तुम्हारे राजा के अन्याय और दुराचार का फल है। जब तक वे स्वयं अनुष्ठान न करेंगे, तब तक ईश्वर के कोप का निवारण न होगा। तुम लोग उन्हीं के चरणों पर गिरो। उन्हीं के द्वारा तुम्हारा उद्धार होगा।''

राजा पृथ्वीपतिसिंह एक दुश्चरित्र मनुष्य थे। अपने भोग-विलास के सिवा उन्हें और कोई काम न था। महीनों रनिवास से बाहर न निकलते थे। नृत्य-गान और आमोद-प्रमोद की सदा अधिकता रहा करती थी। सारे देश के भीड़, भडुवे, लुच्वे और लफंगे उनके सहवासी थे। नित्य कई तरह की शराबें मँगवाई जाती थीं। नित्य नूतन पुष्टिकारक भोजन बनाए जाते थे। उन्हें कविता से प्रेम था; परंतु केवल उसी कविता से जिससे विषय-वासनाओं को उत्तेजना मिलती है। वे स्वयं दादरे और ठुमरियाँ रचते थे और बहुधा नशे में मस्त होकर वेश्याओं के साथ नाचने लगते थे। उन्हें अभी तक इस घोर दुर्भिक्ष की खबर न थी। उनके मंत्रीगण भी स्वार्थसेवी थे, देश की वास्तविक दशा को उनसे छिपा रखने में वे अपना उपकार समझते थे। देश में चाहे कोई विपत्ति पड़े; परंतु राज्य-दरबार के लिए रुपए कहीं न कहीं से निकल ही आते थे। प्रजा की यह मजाल कहाँ थी कि राज्य-व्यवहार में वह कुछ हस्तक्षेप कर सके? वह राजा से उदासीन हो रही थी। जो विपत्ति आ पड़ती थी उसे वह झेलती थी; पर राजा की विलास-शांति को भंग करने का दुस्साहस न कर सकती थी।

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