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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


भोंदू ने बातचीत छेड़ने के इरादे से कहा, लो, एक लोटा पानी दे दो, बड़ी प्यास लगी है। मर गया सारे दिन। बाजार में जाऊँगा, तो तीन आने से बेसी न मिलेंगे। दो-चार सैंकडे मिल जाते, तो मेहनत सुफल हो जाती। बंटी ने सिरकी के अन्दर बैठे-बैठे कहा, 'धरम भी लूटोगे और पैसे भी। मुँह धो रखो।'

भोंदू ने भॅवें सिकोड़कर कहा, 'क्या धरम-धरम बकती है! धरम करना हँसी-खेल नहीं है। धरम वह करता है, जिसे भगवान् ने माना हो। हम क्या खाकर धरम करें। भर-पेट चबेना तो मिलता नहीं, धरम करेंगे।'

बंटी ने अपना वार ओछा पड़ता देखकर चोट पर चोट की 'संसार में कुछ ऐसे भी महात्मा हैं, जो अपना पेट चाहे न भर सकें, पर पड़ोसियों को नेवता देते फिरते हैं; नहीं तो सारे दिन बन-बन लकड़ी न तोड़ते फिरते। ऐसे धरमात्मा लोगों को मेहरिया रखने की क्यों सूझती है, यही मेरी समझ में नहीं आता। धरम की गाड़ी क्या अकेले नहीं खींचते बनती?'

भोंदू इस चोट से तिलमिला गया। उसकी जिहरदार नसें तन गयीं; माथे पर बल पड़ गये। इस अबला का मुँह वह एक डपट में बंद कर सकता था; पर डाँट-डपट उसने न सीखी थी। जिसके पराक्रम की सारे कंजड़ों में धूम थी, जो अकेला सौ-पचास जवानों का नशा उतार सकता था, वह इस अबला के सामने चूँ तक न कर सका। दबी जबान से बोला, 'मेहरिया धरम बेचने के लिए नहीं लायी जाती, धरम पालने के लिए लायी जाती है।'

यह कंजड़-दंपती आज तीन दिन से और कई कंजड़ परिवारों के साथ इस बाग में उतरा हुआ था। सारे बाग में सिरकियाँ-ही-सिरकियाँ दिखायी देती थीं। उसी तीन हाथ चौड़ी और चार हाथ लम्बी सिरकी के अन्दर एक-एक पूरा परिवार जीवन के समस्त व्यापारों के साथ कल्पवास-सा कर रहा था। एक किनारे चक्की थी, एक किनारे रसोई का स्थान, एक किनारे दो-एक अनाज के मटके। द्वार पर एक छोटी-सी खटोली बालकों के लिए पड़ी थी।

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