कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 25 प्रेमचन्द की कहानियाँ 25प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग
शायद बंटी की अन्तरात्मा को यह विश्वास न था कि ये लोग इतने अमानुषीय अत्याचार कर सकते हैं; लेकिन जब सचमुच धूनी सुलगा दी गयी, मिर्च की तीखी जहरीली झार फैली और भोंदू के खाँसने की आवाजें कानों में आयीं, तो उसकी आत्मा कातर हो उठी। उसका वह दुस्साहस झूठे रंग की भाँति उड़ गया। उसने दारोगाजी के पाँव पकड़ लिए और दीन भाव से बोली, 'मालिक, मुझ पर दया करो। मैं सबकुछ दे दूँगी।'
धूनी उसी वक्त हटा ली गयी।
भोंदू ने सशंक होकर पूछा, 'धूनी क्यों हटाते हो? '
एक चौकीदार ने कहा, 'तेरी औरत ने एकबाल कर लिया।'
भोंदू की नाक, आँख, मुँह से पानी जारी था। सिर चक्कर खा रहा था। गले की आवाज बंद-सी हो गयी थी; पर वह वाक्य सुनते ही वह सचेत हो गया। उसकी दोनों मुट्ठियाँ बँध गयीं। बोला, 'क्या कहा,? '
'कहा, क्या, चोरी खुल गयी। दारोगाजी माल बरामद करने गये हुए हैं। पहले ही एकबाल कर लिया होता, तो क्यों इतनी साँसत होती?'
भोंदू ने गरजकर कहा, 'वह झूठ बोलती है।'
'वहाँ माल बरामद हो गया, तुम अभी अपनी ही गा रहे हो।'
परम्परा की मर्यादा को अपने हाथों भंग होने की लज्जा से भोंदू का मस्तक झुक गया। इस घोर अपमान के बाद अब उसे अपना जीवन दया, घृणा और तिरस्कार इन सभी दशाओं से निखिद जान पड़ता था। वह अपने समाज में पतित हो गया था। सहसा बंटी आकर खड़ी हो गयी और कुछ कहना ही चाहती थी कि भोंदू की रौद्रमुद्रा देखकर उसकी जबान बन्द हो गयी। उसे देखते ही भोंदू की आहत मर्यादा किसी आहत सर्प की भाँति तड़प उठी। उसने बंटी को अंगारों-सी तपती हुई लाल आँखों से देखा। उन आँखों में हिंसा की आग जल रही थी। बंटी सिर से पाँव तक काँप उठी। वह उलटे पाँव वहाँ से भागी। किसी देवता के अग्निबाण के समान वे दोनों अंगारों-सी आँखें उसके ह्रदय में चुभने लगीं।
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