कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 25 प्रेमचन्द की कहानियाँ 25प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग
सुवामा- वह बेचारी मुख से क्या कहेगी?
वृजरानी- उसके नेत्र सारी कथा कह देंगे?
सुवामा- लल्लू अपने मन में क्या कहेंगे?
वृजरानी- कहेंगे क्या? यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम उसे कुँवारी समझ रही हो। वह प्रतापचन्द्र की पत्नी बन चुकी। ईश्वर के यहाँ उसका विवाह उनसे हो चुका यदि ऐसा न होता तो क्या जगत् में पुरुष न थे? माधवी जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान देगा? उसने अपना आधा यौवन व्यर्थ रो-रोकर बिताया है। उसने आज तक ध्यान में भी किसी अन्य पुरुष को स्थान नहीं दिया। बारह वर्ष से तपस्विनी का जीवन व्यतीत कर रही है। वह पलंग पर नहीं सोयी। कोई रंगीन वस्त्र नहीं पहना। केश तक नहीं गुँथाये। क्या इन व्यवहारों से नहीं सिद्ध होता कि माधवी का विवाह हो चुका? हृदय का मिलाप सच्चा विवाह है। सिन्दूर का टीका, ग्रन्थि-बन्धन और भाँवर- ये सब संसार के ढकोसले हैं।
सुवामा- अच्छा, जैसा उचित समझो करो। मैं केवल जग-हँसाई से डरती हूँ।
रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे छिटके हुए थे। माधवी वाटिका में अकेली किन्तु अति दूर हैं। क्या कोई वहाँ तक पहुँच सकता है? क्या मेरी आशाएँ भी उन्हीं नक्षत्रों की भाँति है? इतने में विरजन ने उसका हाथ पकड़कर हिलाया। माधवी चौंक पड़ी।
विरजन- अँधेरे में बैठी क्या कर रही है?
माधवी- कुछ नहीं, तो तारों को देख रही हूँ। वे कैसे सुहावने लगते हैं, किन्तु मिल नहीं सकते।
विरजन के कलेजे में बर्छी-सी लग गयी। धीरज धरकर बोली- यह तारे गिनने का समय नहीं है। जिस अतिथि के लिए आज भोर से ही फूली नहीं समाती थी, क्या इसी प्रकार उसकी अतिथि-सेवा करेगी?
माधवी- मैं ऐसे अतिथि की सेवा के योग्य कब हूँ?
विरजन- अच्छा, यहाँ से उठो तो मैं अतिथि-सेवा की रीति बताऊँ।
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