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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाए। ऐसी बातें और न सुन सके। बोले– लालबिहारी तुम्हारा भाई है, उससे जब कभी भूल-चूक हो, उसके कान पकड़ो लेकिन–

श्रीकंठ– लालबिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।

बेनीमाधव सिंह– स्त्री के पीछे?

श्रीकंठ– नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।

दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे। लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गाँव के और कई सज्जन हुक्के-चिलम के बहाने वहाँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने की तैयार हैं, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियाँ सुनने के लिए उनकी आत्माएँ तिलमिलाने लगीं। गाँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे। वे कहा करते थे, श्रीकंठ अपने बाप से दबता है, इसीलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पढ़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है। बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनाएँ आज पूरी होती दिखायी दीं। कोई हुक्का पीने के बहाने और कोई लगान की रसीद दिखान के बहाने आ-आकर बैठ गए। बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे, इन भावों को ताड़ गए। उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ भी क्यों न हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूँगा। तुरंत कोमल शब्दों में बोले– अब तो लड़के से अपराध हो गया।

इलाहाबाद का अनुभवरहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर! बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ में न आया, बोला– लालबिहारी के साथ अब इस घर में मैं नहीं रह सकता।

बेनीमाधव– बेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ लड़का है। उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा कर दो।

श्रीकंठ– उसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता, या तो वही घर में रहेगा, या मैं रहूँगा। आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप सँभाल लूँगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं, तो उससे कहिए, जहाँ चाहे चला जाय। बस, यही मेरा अंतिम निश्चय है।

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