कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 26 प्रेमचन्द की कहानियाँ 26प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग
श्रीकंठ को देखकर आनन्दी ने कहा— लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।
श्रीकंठ– तो मैं क्या करूँ?
आनन्दी– भीतर बुला लो! मेरी जीभ में आग लगे। मैंने कहाँ से यह झगड़ा उठाया।
श्रीकंठ– मैं न बुलाऊँगा।
आनन्दी– पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है। ऐसा न हो, कहीं चल दें।
श्रीकंठ न उठे। इतने में लालबिहारी ने फिर कहा— भाभी, भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते, मैं भी इसलिए अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।
लालबिहारी इतना कह कर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अन्त में आनन्दी कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लालबिहारी ने पीछे फिर कर देखा और आँखों में आँसू भर बोला— मुझे जाने दो।
आनन्दी— कहाँ जाते हो?
लालबिहारी— जहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।
आनन्दी– मैं न जाने दूँगी।
लालबिहारी– मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।
आनन्दी– तुम्हें मेरी सौगन्ध, अब एक पग भी आगे न बढ़ाना।
लालबिहारी– जब तक मुझे यह न मालूम हो जाय कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा।
आनन्दी– मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है।
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