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प्रेमचन्द की कहानियाँ 27

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9788

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग


इस मौजे के लोग बेहद सरकश और झगड़ालू थे, जिन्हें इस बात का गर्व था कि कभी कोई जमींदार उन्हें बस में नहीं कर सका। लेकिन जब उन्होंने अपनी बागडोर प्रद्युम्न सिंह के हाथों में जाते देखी तो चौकड़ियाँ भूल गये, एक बदलगाम घोड़े की तरह सवार को कनखियों से देखा, कनौतियाँ खड़ी कीं, कुछ हिनहिनाये और तब गर्दनें झुका दीं। समझ गये कि यह जिगर का मजबूत आसन का पक्का शहसवार है। असाढ़ का महीना था। किसान गहने और बर्तन बेच-बेचकर बैलों की तलाश में दर-ब-दर फिरते थे। गाँवों की बूढ़ी बनियाइन नवेली दुलहन बनी हुई थी और फाका करने वाला कुम्हार बरात का दूल्हा था मजदूर मौके के बादशाह बने हुए थे। टपकती हुई छतें उनकी कृपादृष्टि की राह देख रही थी। घास से ढके हुए खेत उनके ममतापूर्ण हाथों के मुहताज। जिसे चाहते थे बसाते थे, जिस चाहते थे उजाड़ते थे। आम और जामुन के पेड़ों पर आठों पहर निशानेबाज मनचले लड़कों का धावा रहता था। बूढ़े गर्दनों में झोलियाँ लटकाये पहर रात से टपके की खोज में घूमते नजर आते थे जो बुढ़ापे के बावजूद भोजन और जाप से ज्यादा दिलचस्प और मज़ेदार काम था। नाले पुरशोर, नदियाँ अथाह, चारों तरफ हरियाली और खुशहाली। इन्हीं दिनों ठाकुर साहब मौत की तरह, जिसके आने की पहले से कोई सूचना नहीं होती, गाँव में आये। एक सजी हुई बरात थी, हाथी और घोड़े, और साज-सामान, लठैतों का एक रिसाला-सा था। गाँव ने यह तूमतड़ाक और आन-बान देखी तो रहे-सहे होश उड़ गये। घोड़े खेतों में ऐंड़ने लगे और गुंडे गलियों में। शाम के वक्त ठाकुर साहब ने अपने असामियों को बुलाया और बुलन्द आवाज में बोले- मैंने सुना है कि तुम लोग सरकश हो और मेरी सरकशी का हाल तुमको मालूम ही है। अब ईंट और पत्थर का सामना है। बोलो क्या मंजूर है?

एक बूढ़े किसान ने बेर के पेड़ की तरह काँपते हुए जवाब दिया- सरकार, आप हमारे राजा हैं। हम आपसे ऐंठकर कहाँ जायेंगे।

ठाकुर साहब तेवर बदलकर बोले- तो तुम लोग सब के सब कल सुबह तक तीन साल का पेशगी लगान दाखिल कर दो और खूब ध्यान देकर सुन लो कि मैं हुक्म को दुहराना नहीं जानता वर्ना मैं गाँव में हल चलवा दूँगा और घरों को खेत बना दूँगा।

सारे गाँव में कोहराम मच गया। तीन साल का पेशगी लगान और इतनी जल्दी जुटाना असम्भव था। रात इसी हैस-बैस में कटी। अभी तक आरजू-मिन्नत के बिजली जैसे असर की उम्मीद बाकी थी। सुबह बड़ी इन्तजार के बाद आई तो प्रलय बनकर आई। एक तरफ तो जोर जबर्दस्ती और अन्याय-अत्याचार का बाजार गर्म था, दूसरी तरफ रोती हुई आँखों, सर्द आहों और चीख-पुकार का, जिन्हें सुननेवाला कोई न था। गरीब किसान अपनी-अपनी पोटलियाँ लादे, बेकस अन्दाज से ताकते, आँखों में याचना भरे बीवी-बच्चों को साथ लिये रोते-बिलखते किसी अज्ञात देश को चले जाते थे। शाम हुई तो गाँव उजड़ गया।

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