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प्रेमचन्द की कहानियाँ 27

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9788

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्ताइसवाँ भाग


हरदास खड़ा हो गया। गुस्सा अब चिनगारी बनकर आँखों से निकल रहा था। बोला—हमने इस गाँव को छोड़ने के लिए नहीं बसाया है। जब तक जियेंगे इसी गाँव में रहेंगे, यहीं पैदा होंगे और यहीं मरेंगे। आप बड़े आदमी हैं और बड़ों की समझ भी बड़ी होती है। हम लोग अक्खड़ गंवार हैं। नाहक गरीबों की जान के पीछ मत पड़िए। खून-खराबा हो जायेगा। लेकिन आपको यही मंजूर है तो हमारी तरफ से आपके सिपाहियों को चुनौती है, जब चाहे दिल के अरमान निकाल लें।

इतना कहकर ठाकुर साहब को सलाम किया और चल दिया। उसके साथी गर्व के साथ अकड़ते हुए चले। अर्जुनसिंह ने उनके तेवर देखे। समझ गया कि यह लोहे के चने हैं लेकिन शोहदों का सरदार था, कुछ अपने नाम की लाज थी। दूसरे दिन शाम के वक्त जब रात और दिन में मुठभेड़ हो रही थी, इन दोनों जमातों का सामना हुआ। फिर वह धौल-धप्पा हुआ कि जमीन थर्रा गयी। जबानों ने मुंह के अन्दर वह मार्के दिखाये कि सूरज डर के मारे पश्चिम में जा छिपा। तब लाठियों ने सिर उठाया लेकिन इससे पहले कि वह डाक्टर साहब की दुआ और शुक्रिये की मुस्तहक हों अर्जुनसिंह ने समझदारी से काम लिया। ताहम उनके चन्द आदमियों के लिए गुड़ और हल्दी पीने का सामान हो चुका था। वकील साहब ने अपनी फौज की यह बुरी हालतें देखीं, किसी के कपड़े फटे हुए, किसी के जिस्म पर गर्द जमी हुई, कोई हाँफते-हाँफते बेदम (खून बहुत कम नजर आया क्योंकि यह एक अनमोल चीज है और इसे डंडों की मार से बचा लिया गया) तो उन्होंने अर्जुनसिंह की पीठ ठोकी और उसकी बहादुरी और जाँबाजी की खूब तारीफ की। रात को उनके सामने लड्डू और इमरतियों की ऐसी वर्षा हुई कि यह सब गर्द-गुबार धुल गया। सुबह को इस रिसाले ने ठंडे-ठंडे घर की राह ली और कसम खा गए कि अब भूलकर भी इस गाँव का रूख न करेंगे। तब ठाकुर साहब ने गाँव के आदमियों को चौपाल में तलब किया। उनके इशारे की देर थी। सब लोग इकट्ठे हो गए। अख्तियार और हुकूमत अगर घमंड की मसनद से उतर आए तो दुश्मनों को भी दोस्त बना सकती है। जब सब आदमी आ गये तो ठाकुर साहब एक-एक करके उनसे बगलगीर हुए ओर बोले- मैं ईश्वर का बहु ऋणी हूँ कि मुझे गाँव के लिए जिन आदमियों की तलाश थी, वह लोग मिल गये। आपको मालूम है कि यह गाँव कई बार उजड़ा और कई बार बसा। उसका कारण यही था कि वे लोग मेरी कसौटी पर पूरे न उतरते थे। मैं उनका दुश्मन नहीं था लेकिन मेरी दिली आरजू यह थी कि इस गाँव में वे लोग आबाद हों जो जुल्म का मर्दों की तरह सामना करें, जो अपने अधिकारों और रिआयतों की मर्दों की तरह हिफाजत करें, जो हुकूमत के गुलाम न हों, जो रोब और अख्तियार की तेज निगाह देखकर बच्चों की तरह डर से सहम न जाएँ। मुझे इत्मीनान है कि बहुत नुकसान और शर्मिंदगी और बदनामी के बाद मेरी तमन्नाएँ पूरी हो गयीं। मुझे इत्मीनान है कि आप उल्टी हवाओं और ऊँची-ऊँची उठनेवाली लहरों का मुकाबला कामयाबी से करेंगे। मैं आज इस गाँव से अपना हाथ खींचता हूँ। आज से यह आपकी मिल्कियत है। आपही इसके जमींदार और मालिक हैं। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि आप फलें-फूलें ओर सरसब्ज हों।

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