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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


रात का वक्त था; काली घटा छायी हुई थी। एक युवक ने कहा- आप बार-बार मुझी को क्यों चुनते हैं? हिस्सा लेनेवाले तो सभी हैं, मैं ही क्यों बार-बार अपनी जान जोखिम में डालूँ?

रमेश ने दृढ़ता से कहा- इसका निश्चय करना मेरा काम है कि कौन कहाँ भेजा जाय। तुम्हारा काम केवल मेरी आज्ञा का पालन है।

युवक- अगर मुझसे काम ज्यादा लिया जाता है, तो हिस्सा क्यों नहीं ज्यादा दिया जाता?

रमेश ने उसकी त्योरियाँ देखीं और चुपके से पिस्तौल हाथ में लेकर बोले- इसका फैसला वहाँ से लौटने के बाद होगा।

युवक- मैं जाने से पहले इसका फैसला करना चाहता हूँ।

रमेश ने इसका जवाब न दिया। वह पिस्तौल से उसका काम तमाम कर देना ही चाहते थे कि युवक खिड़की से नीचे कूद पड़ा और भागा। कूदने-फाँदने में उसका जोड़ न था। चलती रेलगाड़ी से फाँद पड़ना उसके बायें हाथ का खेल था।

वह वहाँ से सीधा गुप्त पुलिस के प्रधान के पास पहुँचा।

यशवंत ने भी पेंशन लेकर वकालत शुरू की थी। न्याय-विभाग के सभी लोगों से उनकी मित्रता थी। उनकी वकालत बहुत जल्द चमक उठी। यशवंत के पास लाखों रुपये थे। उन्हें पेंशन भी बहुत मिलती थी। वह चाहते, तो घर बैठे आनन्द से अपनी उम्र के बाकी दिन काट देते। देश और जाति की कुछ सेवा करना भी उनके लिए मुश्किल न था। ऐसे ही पुरुषों से निःस्वार्थ सेवा की आशा की जा सकती है। पर यशवंत ने अपनी सारी उम्र रुपये कमाने में गुजारी थी, और वह अब कोई ऐसा काम न कर सकते थे, जिसका फल रुपयों की सूरत में न मिले।

यों तो सारा सभ्य-समाज रमेश से घृणा करता था, लेकिन यशवंत सबसे बढ़ा हुआ था। कहता, अगर कभी रमेश पर मुकदमा चलेगा, तो मैं बिना फीस लिये सरकार की तरफ से पैरवी करूँगा। खुल्लमखुल्ला रमेश पर छींटे उड़ाया करता- यह आदमी नहीं, शैतान है; राक्षस है; ऐसे आदमी का तो मुँह न देखना चाहिए ! उफ् ! इसके हाथों कितने भले घरों का सर्वनाश हो गया। कितने भले आदमियों के प्राण गये। कितनी स्त्रियाँ विधवा हो गयीं। कितने बालक अनाथ हो गये। आदमी नहीं, पिशाच है। मेरा बस चले, तो इसे गोली मार दूँ, जीता चुनवा दूँ।

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