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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


'आपकी बातों से दिल में गुदगुदी हो गयी।'

'मगर एक बात याद रखिए, कहीं उसका कोई जवान प्रेमी मिल गया, तो?'

'तो मिला करे, यहाँ ऐसों से नहीं डरते।'

'आपकी शादी की कुछ बातचीत थी तो?'

'हाँ, थी, मगर जब अपने लड़के दुश्मनी पर कमर बाँधे, तो क्या हो? मेरा लड़का यशवंत तो बन्दूक दिखाने लगा। यह जमाने की खूबी है!'

अक्तूबर की धूप तेज हो चली थी। दोनों मित्र निकल गये।

दो देवियाँ- एक वृद्धा, दूसरी नवयौवना, पार्क के फाटक पर मोटर से उतरी और पार्क में हवा खाने आयी। उनकी निगाह भी उस नींद की मारी युवती पर पड़ी।

वृद्धा ने कहा- बड़ी बेशर्म है।

नवयौवना ने तिरस्कार-भाव से उसकी ओर देखकर कहा- ठाठ तो भले घर की देवियों के हैं?

'बस, ठाठ ही देख लो। इसी से मर्द कहते हैं, स्त्रियों को आजादी न मिलनी चाहिए।'

'मुझे तो वेश्या मालूम होती है।'

'वेश्या ही सही, पर उसे इतनी बेशर्मी करके स्त्री-समाज को लज्जित करने का क्या अधिकार है?'

'कैसे मजे से सो रही हैं, मानो अपने घर में है।'

'बेहयाई है। मैं परदा नहीं चाहती, पुरुषों की गुलामी नहीं चाहती, लेकिन औरतों में जो गौरवशीलता और सलज्जता है, उसे नहीं छोड़ती। मैं किसी युवती को सड़क पर सिगरेट पीते देखती हूँ, तो मेरे बदन में आग लग जाती है। उसी तरह आधी का जम्फर भी मुझे नहीं सोहाता। क्या अपने धर्म की लाज छोड़ देने ही से साबित होगा कि हम बहुत फारवर्ड हैं? पुरुष अपनी छाती या पीठ खोले तो नहीं घूमते?'

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