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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


मैंने चुपके से रिस्टवाच खोलकर बालक की बाँह में बाँध दी और तब उसे गोद में उठाकर बोला- ''भैया, अपनी घड़ी हमें दे दो।''

सयाने बाप के बेटे भी सयाने होते हैं। बालक ने घड़ी को दूसरे हाथ से छिपाकर कहा- ''तुमको नई दे दें!''

मगर मैंने अंत में उसे फुसलाकर घड़ी ले ली और अपनी कलाई पर बाँध ली। बालक पान लेने चला गया। दानू बाबू अपनी घड़ी के अलौकिक गुणों की प्रशंसा करने लगे- ''ऐसी सच्चा समय बतानेवाली घड़ी आज तक कम-से-कम मैंने नहीं देखी।''

मैंने अनुमोदन किया- ''है भी तो स्विस!''

दानू- ''अजी स्विस होने से क्या होता है। लाखों स्विस घड़ियाँ देख चुका हूँ। किसी को सरदी, किसी को जुकाम, किसी को गठिया, किसी को लक़वा। जब देखिए,  तब अस्पताल में पड़ी हैं। घड़ी की पहचान चाहिए, और यह कोई आसान काम नहीं। कुछ लोग समझते हैं, बहुत दाम खर्च कर देने से अच्छी घड़ी मिल जाती है। मैं 'कहता हूँ तुम गधे हो, दाम खर्च करने से ईश्वर नहीं मिला करता। ईश्वर मिलता है ज्ञान से और घड़ी भी मिलती है ज्ञान से। फ़ासेट साहब को तो जानते होगे। बस, बंदा ऐसों ही की खोज में रहता है। एक दिन आकर बैठ गया। शराब की चाट थी। जेब में रुपए नदारद। मैंने 25 रुपए में यह घड़ी ले ली। इसको तीन साल होते हैं और आज तक एक मिनट का फ़र्क़ नहीं पड़ा। कोई इसके सौ आँकता है, कोई दो सौ, कोई साढ़े तीन सौ, कोई पौने पाँच सौ; मगर मैं कहता हूँ तुम सब गधे हो, एक हज़ार के नीचे ऐसी घड़ी नहीं मिल सकती। पत्थर पर पटक दो, क्या मजाल कि बाल भी आए।''

मैं- ''तब तो यार एक दिन के लिए मंगनी दे दो। बाहर जाना है। औरों को भी इसकी करामात सुनाऊँगा।''

दानू- ''मंगनी तो, तुम जानते हो, मैं कोई चीज़ नहीं देता। क्यों नहीं देता, इसकी कथा सुनाने बैठूँ तो अलिफ़ लैला की दास्तान हो जाए। उसका सारांश यह है किए मँगनी में चीज़ देना मित्रता की जड़ खोदना, मुरव्यत का गला घोटना उमैर अपने घर में आग लगाना है। आप बहुत उत्सुक मालूम होते हैं इसलिए दो-एक घटनाएँ सुना ही दूँ। आपको फुरसत है न? ही, आज तो दफ्तर बंद है, तो सुनिए।

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