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प्रेमचन्द की कहानियाँ 32

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9793

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग


पचौली में मुसलमानों के कई घर थे। अबकी कई साल के बाद हज का रास्ता खुला था। पाश्चात्य महासमर के दिनों में राह बंद थी। गाँव के कितने ही स्त्री-पुरुष हज करने चले। रहमान की बूढ़ी माता भी हज के लिए तैयार हुई। रहमान से बोली- बेटा, इतना सबाब करो। बस मेरे दिल में यही एक अरमान बाकी है। इस अरमान को लिये हुए क्यों दुनिया से जाऊँ; खुदा तुमको इस नेकी की सज़ा (फल) देगा।

मातृभक्ति ग्रामीणों का विशिष्ट गुण है। रहमान के पास इतने रुपये कहाँ थे कि हज के लिए काफी होते; पर माता की आज्ञा कैसे टालता? सोचने लगा, किसी से उधर ले लूँ। कुछ अबकी ऊख पेरकर दे दूँगा, कुछ अगले साल चुका दूँगा। अल्लाह के फजल से ऊख ऐसी हुई कि कभी न हुई थी। यह माँ की दुआ ही का फल है। मगर किससे लूँ? कम से कम 200 रु. हों, तो काम चले। किसी महाजन से जान-पहचान भी तो नहीं है। यहाँ जो दो-एक बनिये लेन-देन करते हैं, वे तो असामियों की गरदन ही रेतते हैं। चलूँ, लाला दाऊदयाल के पास। इन सबसे तो वही अच्छे हैं। सुना है, वादे पर रुपये लेते हैं, किसी तरह नहीं छोड़ते, लोनी चाहे दीवार को छोड़ दे, दीमक चाहे लकड़ी को छोड़ दे पर वादे पर रुपये न मिले, तो वह असामियों को नहीं छोड़ते। बात पीछे करते हैं, नालिश पहले। हाँ, इतना है कि असामियों की आँख में धूल नहीं झोंकते, हिसाब-किताब साफ रखते हैं। कई दिन वह इसी सोच-विचार में पड़ा रहा कि उनके पास जाऊँ या न जाऊँ। अगर कहीं वादे पर रुपये न पहुँचे, तो? बिना नालिश किये न मानेंगे। घर-बार, बैल-बधिया, सब नीलाम करा लेंगे। लेकिन जब कोई वश न चला, तो हारकर दाऊदयाल के ही पास गया और रुपये कर्ज माँगे।

दाऊ.- तुम्हीं ने तो मेरे हाथ गऊ बेची थी न?

रहमान- हाँ हजूर !

दाऊ.- रुपये तो तुम्हें दे दूँगा, लेकिन मैं वादे पर रुपये लेता हूँ। अगर वादा पूरा न किया, तो तुम जानो। फिर मैं जरा भी रिआयत न करूँगा। बताओ कब दोगे?

रहमान ने मन में हिसाब लगाकर कहा- सरकार, दो साल की मियाद रख लें।

दाऊ.- अगर दो साल में न दोगे, तो ब्याज की दर 32 रु. सैकड़े हो जायगी। तुम्हारे साथ इतनी मुरौवत करूँगा कि नालिश न करूँगा।

रहमान- जो चाहे कीजिएगा। हजूर के हाथ में ही तो हूँ।

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