कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
बुद्धू ने सुना, और मानो ठोकर लग गयी। झींगुर भी भोजन करके वहीं बैठा था। बोला- हाय-हाय, मेरी बछिया ! चलो, जरा देखूँ तो। मैंने तो पगहिया नहीं लगायी थी। उसे भेड़ों में पहुँचाकर अपने घर चला गया। तुमने यह पगहिया कब लगा दी?
बुद्धू- भगवान् जाने जो मैंने उसकी पगहिया देखी भी हो। मैं तो तब से भेड़ों में गया ही नहीं।
झींगुर- जाते न तो पगहिया कौन लगा देता? गये होगे, याद न आती होगी।
एक ब्राह्मण- मरी तो भेड़ों में ही न? दुनिया तो यही कहेगी कि बुद्धू की असावधानी से उसकी मृत्यु हुई, पगहिया किसी की हो।
हरिहर- मैंने कल साँझ को इन्हें भेड़ों में बछिया को बाँधते देखा था।
बुद्धू- मुझे?
हरिहर- तुम नहीं लाठी कंधे पर रखे बछिया को बाँध रहे थे?
बुद्धू- बड़ा सच्चा है तू ! तूने मुझे बछिया को बाँधते देखा था?
हरिहर- तो मुझ पर काहे बिगड़ते हो भाई? तुमने नहीं बाँधी, नहीं सही।
ब्राह्मण- इसका निश्चय करना होगा। गोहत्या का प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। कुछ हँसी ठट्ठा है।
झींगुर- महाराज, कुछ जान-बूझकर तो बाँधी नहीं।
ब्राह्मण- इससे क्या होता है? हत्या इसी तरह लगती है; कोई गऊ को मारने नहीं जाता।
झींगुर- हाँ, गऊओं को खोलना-बाँधना है तो जोखिम का काम।
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