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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


लेकिन सोना देवी उन्हें ऊँच-नीच सुझाकर शांत करती रहती थीं। बेचारे मोटेराम अब स्वादिष्ट पदार्थों की चर्चा सुनकर ही मन को संतुष्ट कर लेते थे। आँसू केवल डसलिए पुछ जाते थे कि यहाँ पंडित जी को कोई काम न करना पड़ता था। ऊँची कक्षा के विद्यार्थी नीची कक्षा वालों को पढ़ा देते थे। पंडित जी का काम केवल सर्वोच्च श्रेणी के एक विद्यार्थी को पढ़ाना था और वह विद्यार्थी पंडित जी को बहुत कम कष्ट देता था।

घसीटे जब पुत्र को कँधे पर लिए शाला पहुँचे तो पंडितजी मसनद लगाए, गद्दी पर लेटे हुए शिष्यों से अपनी गुदगुदी देह में मुक्कियाँ लगवा रहे थे। एक युवक उनके तलवे सहला रहा था। दो खड़े पँखा झल रहे थे और एक लड़का उनके सिर में तेल डाल रहा था। पंडितजी लेटे-लेट काव्य-साहित्य पर लेक्चर दे रहे थे- ''जिस भाँति स्वाद में पाँच-रस हैं, उसी भाँति काव्य में नवरस हैं। स्वाद के रसों में जैसे मिष्ठ-रस सर्वप्रधान है, उसी भांति काव्य के नौ रसों में श्रृंगार सर्वश्रेष्ठ है। जिस भाँति मिष्ठ-रस के अंतर्गत अनेकों पदार्थ हैं, उसी भाँति श्रृंगार-रस के अंतर्गत अनेकों नायिकाएँ हैं और जिस भाँति मिष्ठ-पदार्थो में मोतीचूर के लड्डू सर्वोत्तम हैं, उसी भाँति नायिकाओं में मुग्धा सर्वप्रधान है। मैं मुग्धा पर मुग्ध हूँ।''

सहसा घसीटे ने भीतर आकर पंडित जी को साष्टांग दंडवत की।

मोटे.- ''आशीर्वाद, आशीर्वाद! कहो कैसे चले सेठ! यह क्या छोटे सेठ हैं?''

घसीटे- ''हाँ महाराज, आपका गुलाम है। इसकी पाटी पुजाना चाहता हूँ।''

मोटे.- ''हाँ-हाँ, अवश्य पुजाओ। विद्या से उत्तम कोई वस्तु नहीं।''

घसीटे- ''तभी तो आपकी सरन आया हूँ महाराज! ऐसी कृपा कीजिए कि चार अच्छर पढ़ जाए।''

मोटे.- ''गुरुजनों की दया चाहिए। केवल कुछ खर्च करना पड़ेगा।''

घसीटे.- ''खरच करने को तो मैं तैयार हूँ महाराज!''

मोटे.- ''हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ। चिंतामणि जी, यहाँ तक कष्ट कीजिए। यह सेठ घसीटेमल जी हैं। इनके सुपुत्र का विद्यारंभ होगा। इस शुभ-अवसर पर यह गुरुजनों का सत्कार करना चाहते हैं।''

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