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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


मोटे.- ''रुष्ट न हो मित्रवर! शपथ खाकर कहता हूँ अबकी तुम्हारी प्रस्तावित मात्रा ही स्वीकार करूँगा।''

चिंता.- ''तो सेर भर रख लो।''

मोटे.- ''महान मूर्ख हो मित्रवर, इस देव-दुर्लभ पदार्थ का यह अपमान तुम जैसे सहृदय पुरुष को शोभा नहीं देता। इसे 20 सेर रख लो।''

इस तरह आपस में एक तखमीना बनाकर मोटेराम ने सेठजी को सब ब्यौरा बता दिया। एक-एक रुपया दक्षिणा का प्रस्ताव भी किया। बेचारे घसीटे ने यह तखमीना सुना तो चक्कर में आ गया। उसे तो एक ही रुपया अखर रहा था। बोला- ''मेरी तो इतनी सामर्थ्य नहीं है।''

मोटे.- ''ऐसा न कहो लक्ष्मी-पुत्र, ऐसा न कहो, भगवान ने तुम्हें सब-कुछ दिया है। तुम्हारा बालक बड़ा भागवान है, कुल का नाम करेगा। तो सब मूर्तियाँ आठ बजते-बजते पहुँच जाएँगी।''

घसीटे- ''महाराज, मैं तो बहुत... ''

मोटे.- ''हाँ-हाँ, प्रसन्न होने की तो बात है। विप्रों तथा विद्वानों के चरण जहाँ जाते हैं, वह स्थान स्वर्ग-तुल्य हो जाता है।''

घसीटे- ''महाराज, मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। आपने मेरी टुकान तो देखी है, बिक्री-बट्टा भी आजकल मंदा है...।''

मोटे.- ''इस पुण्य-कार्य से तुम्हारा सब दुःख-दारिद्र्य दूर हो जाएगा। विप्र-सेवा ही कल्पवृक्ष है। शीघ्र ही प्रबंध करना, हमें विलंब न होगा।''

बेचारा घसीटे फिर कुछ न कहने पाया, क्योंकि मोटेराम जी अपने विचार में उसे काफ़ी तौर पर तौलकर करके फिर काव्य-साहित्य पर वक्तृता देने लगे।

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