कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
उसने अनुमति की प्रतीक्षा न की। तुरंत पोथा खोलकर एक कविता सुनाने लगी। शर्माजी को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा है। कई बार उन्हें मतली आ गयी, जैसे एक हजार गधे कानों के पास खड़े अपना स्वर अलाप रहे हों। कामाक्षी के स्वर में कोयल का माधुर्य था; पर शर्माजी को इस समय वह भी अप्रिय लग रहा था। सिर में सचमुच दर्द होने लगा। वह गधी टलेगी भी, या यों ही बैठी सिर खाती रहेगी? इसे मेरे चेहरे से भी मेरे मनोभावों का ज्ञान नहीं हो रहा है। उस पर आप कविता करने वाली हैं! इस मुँह से तो महादेवी या सुभद्राकुमारी की कविताएँ भी घृणा ही उत्पन्न करेंगी।
आखिर न रहा गया। बोले- आपकी रचनाओं का क्या कहना, आप यह संग्रह यहीं छोड़ जायें। मैं अवकाश में पढ़ूँगा। इस समय तो बहुत-सा काम है।
कामाक्षी ने दयार्द्र होकर कहा- आप इतना दुर्बल स्वास्थ्य होने पर भी इतने व्यस्त रहते हैं? मुझे आप पर दया आती है।
'आपकी कृपा है।'
'आपको कल अवकाश रहेगा? जरा मैं अपना ड्रामा सुनाना चाहती थी?'
'खेद है, कल मुझे जरा प्रयाग जाना है।'
'तो मैं भी आपके साथ चलूँ? गाड़ी में सुनाती चलूँगी।'
'कुछ निश्चय नहीं, किस गाड़ी से जाऊँ।'
'आप लौटेंगे कब तक?'
'यह भी निश्चय नहीं।'
और टेलीफोन पर जाकर बोले- हल्लो, नं. 77।
कामाक्षी ने आधा घंटे तक उनका इंतजार किया; मगर शर्माजी एक सज्जन से ऐसी महत्व की बातें कर रहे थे, जिसका अंत ही होने न पाता था।
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