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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


विमल ने आवेश में कहा- यह आप क्या कहती हैं मंजुला देवी! रूप संसार का सबसे बड़ा सत्य है। रूप को भयंकर समझकर हमारे महात्माओं और पण्डितों ने दुनिया के साथ घोर अन्याय किया है।

मंजुला की सुन्दर छवि गर्व के प्रकाश से चमक उठी। रूप को असत्य समझने के प्रयास में सदैव असफल रही थी। और अपनी निष्ठा और भक्ति से मानो अपने रूप का प्रायश्चित कर रही थी। उसी रूप के इस समर्थन ने एक क्षण के लिए उसे मुग्ध कर दिया मगर वह संभलकर बोली- आप धोखे में हैं, विमल बाबू, मुझे क्षमा कीजिएगा; मगर यह रूप की उपासना आपमें कोई नई बात नहीं है। मरदों ने हमेशा रूप की उपासना की है। थोड़े पण्डितों या महात्माओं ने चाहे रूप की निन्दा की हो, पर मरदों ने प्राय: रूपासक्ति ही का प्रमाण दिया है। यहाँ तक कि रूप के लिए धर्म की परवा नहीं की और उन पण्डितों और महात्माओं ने भी जबान या कलम से चाहे रूप के विरुद्ध विष उगला हो; लेकिन अन्त:करण में वे भी उसकी पूजा करते हैं। जब कभी रूप ने उनकी परीक्षा की है उनकी तपस्या पर विजय पायी है। फिर भी जो असत्य है, वह असत्य ही रहेगा। रूप का आकर्षण केवल बाहरी आँखों के लिए है। ज्ञानियों की निगाह में उसका कोई मूल्य नहीं। कम-से-कम आपके मुख से मैं रूप का बखान नहीं सुनना चाहती, क्योंकि मैं आपको देवतुल्य समझती हूँ और दिल से आप पर श्रद्धा रखती हूँ।

विमल विक्षिप्त-सा जमीन की तरफ ताकता रहा और बराबर ताकता ही चला गया; जैसे वह मूर्छावस्था में हो। फिर चौंककर उठा और अपराधियों की भाँति सिर झुकाये, सन्दिग्ध भाव से कदम उठाता हुआ कमरे से निकल गया।

और मंजुला निश्चिन्त बैठी रही।

उस दिन से एकाएक विमल का सारा उत्साह और कर्मण्यता जैसे ठण्डी पड़ गयी। जैसे उसमें अब अपना मुँह दिखलाने की हिम्मत नहीं है। मानों इस रहस्य का पर्दा खुल गया है और चारों तरफ उसकी हँसी उड़ रही है। वह अब सेवाश्रम में बहुत कम आता है और आता भी है, तो अध्यापिकाओं से कुछ बातचीत नहीं करता। सबसे जैसे मुँह चुराता फिरता है। मंजुला को मिलने का कोई अवसर नहीं देता, और जब मंजुला हारकर उसके घर जाती है, तो कहला देता है, घर में नहीं है, हालाँकि वह घर में छिपा बैठा रहता है।

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