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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


दूसरे दिन वह एक अँगरेजी तमाशा देखने सिनेमा हॉल गया था। इण्टरवल में बाहर निकला तो कैफे में फिर मंजुला दिखायी दी। सिर से पाँव तक अँग्रेजी पहनावे में। वही कल वाला युवक आज भी उसके साथ था। आज विमल से जब्त न हो सका। इसके पहले कि वह मन में कुछ निश्चय कर सके, वह मंजुला के सामने खड़ा था।

मंजुला उसे देखते ही सन्नाटे में आ गयी। मुँह पर हवाइयाँ उडऩे लगीं, मगर एक ही क्षण में उसने अपने आप को सँभाल लिया और मुस्कराकर बोली- हल्लो, विमल बाबू! आप यहाँ कैसे?

और उसने उस नवयुवक से विमल का परिचय कराया- आप महात्मा पुरुष हैं, काशी के सेवाश्रम के संचालक और यह मेरे मित्र मि० खन्ना हैं जो अभी हाल में इंग्लैंड से आई०सी०एफ० होकर आये हैं।

दोनों आदमियों ने हाथ मिलाए।

मंजुला ने पूछा- सेवाश्रम तो खूब चल रहा है। मैंने उसकी वार्षिक रिपोर्ट पत्रों में पढ़ी थी। आप यहाँ कहाँ ठहरे हुए हैं?

विमल ने अपने होटल का नाम बतलाया।

खेल फिर शुरू हो गया। खन्ना ने कहा- खेल शुरू हो गया, चलो अन्दर चलें।

मंजुला ने कहा- तुम जाकर देखो, मैं जरा मिस्टर विमल से बातें करूँगी।

खन्ना ने विमल को जलती हुई आँखों से देखा और अकड़ता हुआ अन्दर चला गया। मंजुला और विमल बाहर आकर हरी-हरी घास पर बैठ गये। विमल का हृदय गर्व से फूला हुआ था। आशामय उल्लास की चाँदनी-सी हृदय पर छिटकी हुई थी।

मंजुला ने गम्भीर स्वर में पूछा- आपको मेरी याद काहे को आयी होगी। कई बार इच्छा हुई कि आपको पत्र लिखूँ, लेकिन संकोच के मारे न लिख सकी। आप मजे में तो थे।

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