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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


वाह रे दयालु भगवान! और वाह रे तुम्हारी लीला! प्राणियों की होली बनाकर उसकी लपटों का तमाशा देखते हो। उसी वक्त भागा हुआ रसिललाल के पास गया और उनकी सूरत देखते ही मन की कुछ ऐसी दशा हुई कि चिंघाड़ मार कर रो पड़ा। रसिकलाल आरामकुर्सी पर लेटे हुए थे। उठाकर मुझे गले लगा लिया और उसी स्थिर, अविचलित, निर्द्वंद्व भाव से बोले, ''वाह मास्टर साहब, आपने तो बालकों को भी मात कर दिया, जिनकी मिठाई कोई छीनकर खा जाए तो रोने लगते हैं! बालक तो इसलिए रोता है कि उसके बदले में दूसरी मिठाई मिल जाए। आप तो ऐसी चीज़ के लिए रो रहे हैं जो किसी तरह मिल ही नहीं सकती। अरे साहब, यहाँ बेहया बनकर रहिए। मार खाते जाइए और मूँछों पर ताव देते जाइए। मज़ा तो तब है कि जल्लाद के पैरों-तले आकर भी वही अकड़ बनी रहे! अगर ईश्वर है, मुझे तो कुछ मालूम नहीं, लेकिन सुनता हूँ कि वह दयालु है और दयालु ईश्वर भला निर्दयी कैसे हो सकता है? वह किसे मारता है, किसे जिलाता है, हमसे मतलब नहीं। उसके खिलौने हैं, खेले या तोड़े, हम क्यों उसके बीच में दखल दें? वह हमारा दुश्मन नहीं, न ज़ालिम बादशाह है कि हमें सताकर खुश हो। मेरा लड़का घर में आग भी लगा दे तो मैं उसका दुश्मन न बनूँगा। मैंने तो उसे पाल-पोसकर बड़ा किया है, उससे क्या दुश्मनी करूँ? भला ईश्वर कभी निर्दयी हो सकता है, जिसके प्रेम का स्वरूप यह ब्रह्मांड है? अगर ईश्वर नहीं है, मुझे मालूम नहीं, और कोई ऐसी शक्ति है, जिसे हमारी विपत्ति में आनंद मिलता है तो साहब यहीं रोने वाले नहीं। हाथों में ताक़त होती और दुश्मन नज़र आता तो हम भी कुछ जवाँमर्दी दिखाते। अब अपनी बहादुरी दिखाने का इसके सिवा और क्या साधन है कि मार खाते जाओ और हँसते जाओ, अकड़ते जाओ! रोए तो अपनी हार को स्वीकार करेंगे। मार ले साले, जितना चाहे मार ले, लेकिन हँसते ही रहेंगे। मक्कार भी है, जादूगर भी। छिपकर वार करता है। आ जाए सामने तो दिखाऊँ। हमें तो अपने उन बेचारे शायरों की अदा पसंद है जो क़ब्र में भी माशूक़ के पाजेब की झंकार सुनकर मस्त होते रहते हैं।''

इसके बाद रसिकलाल ने उर्दू शेरों का ताँता बाँध दिया और इस तरह तन्मय होकर उनका आनंद उठाने लगे, मानो कुछ हुआ ही नहीं है। फिर बोले, ''लड़की रो रही है। मैंने कहा, ऐसे बेवफ़ा के लिए क्या रोना जो तुम्हें छोड़कर चल दिया! अगर उससे प्रेम है तो रोने की कोई जरूरत नहीं! प्रेम तो आनंद की वस्तु है। अगर कहो, क्या करें दिल नहीं मानता, तो दिल को मनाओ। बस, दुःखी मत हो। दुःखी होना ईश्वर का अपमान करना है, और मानवता को कलंकित करना।''

मैं रसिकलाल का मुँह ताकने लगा। उन्होंने यह कथन कुछ ऐसे उदात्त भाव से कहा कि एक-क्षण के लिए मुझ पर भी उसने जादू कर दिया। थोड़ी देर के बाद मैं वहाँ से चला तो दिल का बोझ बहुत-कुछ हल्का हो गया था। मन में एक प्रकार का साहस उदय हो गया था जो विपत्ति और बाधा पर हँस रहा था।

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