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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


राजा- ''यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा, करोगी?''

रानी- ''सिर के बल करूँगी।''

राजा- ''देखो-तुमने वचन दिया है। इंकार न करना।''

रानी- (काँपकर) ''आपके कहने की देर है।''

राजा- ''अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो।''

रानी के हृदय पर वजपात-सा हो गया। बोली- ''जीवननाथ!''

इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी। आँखों में नैराश्य छा गया।

राजा- ''मैं बेड़ियाँ पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता।''

रानी- ''हाय मुझसे यह कैसे होगा!''

पाँचवाँ और अंतिम सिपाही धरती पर गिरा। राजा ने झुँझलाकर कहा- ''इसी जीवट पर आन निभाने का गर्व था?''

बादशाह के सिपाही राजा की तरफ़ लपके। राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा। रानी क्षण-भर अनिश्चित रूप से खड़ी रही, लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान् हो जाती है। निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारंधा ने दामिनी की भाँति लपक कर अपनी तलवार राजा के हृदय में चुभा दी। प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गई। राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी, पर चेहरे पर शांति छाई हुई थी।

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