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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


कप्तान साहब थे तो राजा साहब के आउरदे, पर इन दिनों बादशाह की उन पर विशेष कृपा थी। वह उन सच्चे राज्य-भक्तों में से थे, जो अपने को राजा का नहीं, राज्य का सेवक समझते हैं। वह दरबार से अलग रहते थे बादशाह उनके कामों से बहुत संतुष्ट थे। एक आदमी तुरन्त कप्तान साहब को बुला लाया। राजा साहब की जान उनकी मुठ्टी में थी। रोशनुद्दौला को छोड़ कर शायद एक व्यक्ति भी ऐसा न था, जिसका हृदय आशा और निराशा से धड़क न रहा हो। सब मन में भगवान् से यही प्रार्थना कर रहे थे कि कप्तान साहब किसी तरह से इस समस्या को समझ जायँ। कप्तान साहब आये, उड़ती हुई दृष्टि में सभा की ओर देखा। सभी की आँखें नीचे झुकी थीं। वह कुछ अनिश्चित से सिर झुकाकर खड़े हो गए।

बादशाह ने पूछा- मेरे मुसाहबों को अपनी जेब में भरी हुई पिस्तौल रखना मुनासिब है या नहीं?

दरबारियों की नीरवता, उनके आशंकित चेहरे और उनकी चिन्तायुक्त अधीरता देखकर कप्तान साहब को वर्तमान समस्या की कुछ टोह मिल गई। वह निर्भीक भाव से बोले–हुजूर, मेरे खयाल में तो यह उनका फर्ज है। बादशाह के दोस्त-दुश्मन सभी होते हैं; अगर मुसाहब लोग उनकी रक्षा का भार न लेंगे, तो कौन लेगा? उन्हें सिर्फ पिस्तौल ही नहीं, और भी छिपे हुए हथियारों से लैस रहना चाहिए। न-जाने कब हथियारों की जरूरत आ पड़े, तब वह ऐन वक्त पर कहाँ दौड़ते फिरेंगे!

राजा साहब के जीवन के दिन बाकी थे। बादशाह ने निराश होकर कहा- रोशन इसे कत्ल मत करना, काल-कोठरी में कैद कर दो। मुझसे पूछे बगैर इसे दाना-पानी कुछ न दिया जाय। जाकर इसके घर का सारा माल जब्त कर लो और सारे खानदान को जेल में बन्द कर दो। इसके मकान की दीवारें जमींदोज करा देना। घर में एक फूटी हाँडी भी न रहने पावे।

इससे तो कहीं अच्छा यही था कि राजा साहब ही की जान जाती। खान दान की बेइज्जती न होती, महिलाओं का अपमान तो न होता, दरिद्रता की चोट तो न सहनी पड़ती! विकार को निकलने का मार्ग नहीं मिलता, तो वह सारे शरीर में फैल जाता है। राजा के प्राण तो बचे, पर सारे खानदान को विपत्ति में डालकर!

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