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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


यह समाचार सुनते ही मन्थरा को जैसे कम्प आ गया। मारे डाह के जल उठी। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि कैकेयी के राजकुमार भरत गद्दी पर बैठें और कैकेयी राजमाता हों, तब मैं जो चाहूंगी, करूंगी फिर तो मेरा ही राज होगा और रानियों की दासियों पर धाक जमाऊंगी। सिर से पैर तक गहनों से लदी हुई निकलूंगी तो लोग मुझे देखकर कहेंगे, वह मन्थरा देवी जाती हैं। फिर मुझे किसी ने कुबड़ी कहा तो मजा चखा दूंगी। इसी तरह के मनसूबे उसने दिल में बांध रखे थे। इस खबर ने उसके सारे मनसूबे धूल में मिला दिये। जिस काम के लिये जाती थी उसे बिल्कुल भूल गयी। बदहवास दौड़ी हुई महल में गयी और कैकेयी से बोली- महारानी जी! आपने कुछ और सुना? कल राम का तिलक होने वाला है।

तीनों रानियों में बड़ा प्रेम था। उनमें नाम को भी सौतियाडाह न था। जिस तरह कौशल्या भरत को राम की ही तरह प्यार करती थीं, उसी तरह कैकेयी भी राम को प्यार करती थीं। रामचन्द्र सबसे बड़े थे इसलिए यह मानी हुई बात थी कि वही राजा होंगे। मन्थरा से यह खबर सुनकर कैकेयी बोली- मैं यह खबर पहले ही सुन चुकी हूं, लेकिन तूने सबसे पहले मुझसे कहा, इसलिए यह सोने का हार तुझे इनाम देती हूं। यह ले।

मन्थरा ने सिर पर हाथ मारकर कहा- महारानी! यह इनाम में शौक से लेती अगर राम की जगह राजकुमार भरत के तिलक की खबर सुनती। यह इनाम देने की बात नहीं है, रोने की बात है। आप अपना भला-बुरा कुछ नहीं समझतीं।

कैकेयी- चुप रह डाइन! तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते लाज भी नहीं आती? रामचन्द्र मुझे भरत से भी प्यारे हैं। तू देखती नहीं कि वह मेरा कितना आदर करते हैं? बिना मुझे सलाह लिये कोई काम नहीं करते! फिर यह सबसे बड़े हैं। गद्दी पर अधिकार भी तो उन्हीं का है! फिर जो ऐसी बात मुंह से निकाली, तो जबान खिंचवा लूंगी।

मन्थरा- हां, जबान क्यों न खिंचवा लोगी! जब बुरे दिन आते हैं, तो आदमी की बुद्धि पर इसी प्रकार पर्दा पड़ जाता है। तुम जैसी भोलीभाली, नेक हो, वैसा ही सबको समझती हो। राम को बेटा-बेटा कहते यहां तुम्हारी जबान सूखती है, वहां रानी कौशल्या चुपके-चुपके तुम्हारी जड़ खोद रही हैं। चार दिन में वही रानी होंगी। तुम्हारी कोई बात भी न पूछेगा। बस, महाराज के पूजा के बर्तन धोया करना। मेरा काम तुम्हें समझाना था, समझा दिया। तुम्हारा नमक खाती हूं, उसका हक अदा कर दिया। मेरे लिये जैसे राम, वैसे भरत। मैं दासी से रानी तो होने की नहीं। हां, तुम्हारे विरुद्ध कोई बात होते देखती हूं तो रहा नहीं जाता। मेरे मुंह में आग लगे कहां से कहां मैंने यह जिक्र छेड़ दिया कि सबेरे-सबेरे डाइन, चुड़ैल बनना पड़ा। तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।

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