लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

120 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


कैकेयी ने तिनककर कहा- कान तुम्हारे भरे हैं, मेरे कान नहीं भरे गये हैं। अपना लाभ और हानि जानवर तक समझते हैं। क्या मैं जानवरों से भी गयी-बीती हूं? निश्चय देख रही हूं कि मेरा बाग उजाड़ किया जा रहा है। क्या उसकी रक्षा न करूं? अपनी गर्दन पर तलवार चल जाने दूं? आपको अब तक मैं निर्मल हृदय समझती थी। मगर अब मालूम हुआ कि आप भी केवल बातों से प्रेम के हरेभरे बाग दिखाकर मुझे नष्ट करना चाहते हैं। कौशल्या रानी ने आपको खूब मन्त्र पढ़ाया है। उस नागिन के काटे की दवा नहीं। अब मैं दिखा दूंगी कि कैकेयी भी राजा की लड़की है, किसी शूद्र, चमार की नहीं कि इन चालों को न समझे।

राजा- कैकेयी, मैं कभी झूठ नहीं बोला, मैं तुमसे सच कहता हूं कि मैंने राम के तिलक का निश्चय स्वयं किया। कौशल्या ने इस विषय में मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा। तुम्हारा उन पर सन्देह करना अन्याय है। राम ने भी भरत के विरुद्ध एक शब्द नहीं कहा। मेरे लिए राम और भरत दोनों बराबर हैं। किन्तु अधिकार तो बड़े लड़के का ही है। यदि मैं भरत का तिलक करना भी चाहूं, तो तुम समझती हो, भरत उसे स्वीकार करेंगे? कदापि नहीं। भरत के लिए यह असम्भव है कि वह राम का अधिकार छीनकर प्रसन्न हों। राम और भरत एक प्राण दो शरीर हैं। तुमने इतने दिनों के बाद वरदान भी मांगे तो ऐसे, जो इस घर को नष्ट कर देंगे - शायद इस राज्य का अंत ही कर दें। खेद!

कैकेयी ने उंगली नचाकर कहा- अच्छा! तो क्या आपने समझा था कि मैं आपसे खेलने के लिए गुड़िया मांगूंगी? क्या किसी मजदूर की लड़की हूं? अब इन चिकनीचुपड़ी बातों में आप मुझे न फंसा सकेंगे। आपको और इस घर के आदमियों को खूब देख चुकी। आंखें खुल गयीं। यदि आपको वचन के सच्चे बनने का दावा है तो मेरे दोनों वरदान पूरे कीजिये। अन्यथा फिर रघुवंशी होने का घमण्ड न कीजियेगा। यह कलंक सदैव के लिए अपने माथे पर लगा लीजिए कि रघुकुल के राजा दशरथ ने वादे किये थे, पर जब उन्हें पूरा करने का समय आया तो साफ निकल गये।

राजा ने तिलमिलाकर कहा- कैकेयी, क्यों जले पर नमक छिड़कती हो! मैं अपने वचन से कभी न फिरूंगा, चाहे इसमें मेरा जीवन, मेरे वंश और मेरे राज्य का अन्त ही क्यों न हो जाय। शायद ब्रह्मा ने राम के भाग्य में वनवास ही लिखा हो। शायद इसी बहाने से इस वंश का नाश लिखा हो। किन्तु इसका अपयश सदा के लिए तुम्हारे नाम के साथ लगा रहेगा। मैं तो शायद यह चोट खाकर जीवित न रहूंगा। मगर मेरी यह बात गिरह बांध लो कि राम को वनवास देकर तुम भरत के राज्य का सुख न देख सकोगी।

कैकेयी ने झल्लाकर कहा- यह आप भरत को शाप क्यों देते हैं? भरत राजा होंगे। आपको उन्हें राज्य देना पड़ेगा। वह राजा हो जायं यही मेरी अभिलाषा है। मैं सुख देखने के लिए जीवित रहूंगी या नहीं, इसका हाल ईश्वर जाने।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai